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धशिक्षा. द्वेष आदि दूषणगण, प्रगट हो जाते हैं, यहांतक परिग्रहकी गर्भीका जुल्म है, कि मुनिजनोंके भी चित्त चंचल होते हैं। संसारका मूल आरम्भ है, और आरम्भोंका हेतु-परिग्रह है, इसलिये उपा. सक (श्रावक) को चाहिए कि परिग्रहका परिमाण करे-नियम रक्खे । परिग्रहरूपी ग्रहसे आविष्ट हुए पुरुषको, विषयरूपी चौर लुटते हैं, और कामदेवरूपी आम, संताप देती है, तथा स्त्रीरूपी व्याधगण (शिकारी लोग) रोक लेते है। बहुत परिग्रहसे भी तृष्णावन्तोंको तृप्ति नहीं होती, उलटा असंतोष ही बढता जाता है, कहा है
“ सुवण्णरुप्पस्स य पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया” ॥१॥ अर्थ
संसारमें, सोने रूपेके, कैलासजितने असंख्य पहाड, प्राप्त हो जाय, तो भी लुब्ध आदमीको उनसे कुछ नहीं होता (संतोष नहीं होता)। सचमुच इच्छा-आशा, आकाश जितनी अनंत परिमाणवाली है। स्वयम्भूरमण समुद्रका पार पाना सम्भवित है, मगर आशा महोदधिका थाह पाना अति कठिन है । सौ रूपयेवालेको हजार पर मन जाता है । हजार पानेपर लक्षाधिपति होना चाहता है । लक्षाधिपति होनेपर कोटीश्वर होना चाहता है । कोटीश्वर होनेपर राजा, महाराजा बनना चाहता है । महाराजा हुआ, " समाट्-चक्रवर्ती कव बनूँ " इस इच्छासे घेरा जाता है। चक्रवर्ती हुआ, तो देवताकी संपदा तरफ दिल दौडाता है। देव.
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