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________________ धर्माशक्षा ૧૨૬ ये बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह, संसाररूपी महलको टिकाने वाले बडे थंभे हैं । परिग्रहका प्रचंड बल, वैराग्य शम दम वगैरह मजबूत मूलवाले पेडों को भी मूलसे उखाड डालता है। परिग्रहमें बैठकर जो पुरुष मोक्ष पदकी अभिलाषा रखता है, वह लोहेके नाव से सागरका पार पाना चाहता है। इसमें क्या शक है कि धर्मसे पैदा होते हुए भी बाह्य परिग्रह, धर्मका ध्वस कर डालते हैं ?, क्योंकि अरणि लकडीसे पैदा होने वाली आग, लकडीको वराबर भस्मसात् करदेती है। जो आदमी, बाह्य परिग्रहोंको जीतनेमें समर्थ नहीं है, वह नामर्द, राग द्वेष आदि भीतरके दुश्मनोंको कैसे जीत सकेगा। अविद्या-~अज्ञानताको क्रीडा करनेका बाग, व्यसन-क्लेशोंका समुद्र, और तृष्णा रूपी बडी वल्लीका कन्द है, तो वह परिग्रहही समझना चाहिए । बडी ताज्जुबकी बात है कि लोभान्ध-दौलत मंद लोग, निःसंग मुनिओंको धनार्थी समझकर उनसे भी बहत शंकाशील रहते हैं। राजा, चोर, भाग माँगनेवाले, आग, और जलोपद्रव वगैरहसे डरते हुए धनी लोग, दौलतपर इतनी फिक्र रक्खा करते हैं कि रातको भी पूरी नींद नहीं ले सकते । दुष्काल हो, या सुकाल हो, वन हो, वा शहर हो, सभी जगह धनी पुरुष शंकापिशाचसे पीडाता हुआ दुःखी ही रहता है। वास्तवमें कहने दो तो निर्दोष हों, वा दोषित ही हों, मगर निर्धन आदमी जितने दुःखी नहीं, उतने दुःखी, दोषके खजाने-धन लोभमें फंसे हुए धनी आदमी हैं, । अव्वल तो धन पैदा करनेमें दुःख, धनके रक्षण करनेमें, क्लेश, धनके खर्च करनेमें तकलीफ, और अन्तमें धनका हरण होनेपर बड़ी ही आपदा धनी आदमीको उठानी पड़ती है । धनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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