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________________ ૧૨ - धर्मशिक्षा. पुरुष, दिनरात " इस प्रकार धनको पाऊँ, इस रीतिसे धनको रकतु, इस तरीकेसे धनको बढाऊँ" इसी चिंताके मारे खूनको पानी बनाता है, मगर इस विचारका उदय होवे ही कहाँसे-“मैं जमके दांतोकी बीचमें बैठा हूँ, पीसानेकी तय्यारीमें हूं" ? । धनके लोभमें अंधा बना हुआ आदमी, भीतर ही लेश्यासे कृष्ण (काला) बनता है, इतना ही क्यों ?, बल्कि उसका मुँह और हाथ भी धनके जाने आनेसे काले हो जाते हैं। धनकी आशा, उच्छंखल-संकलसे न जकडाई हुई, इस कदर बिडम्बनाएँ वरसाती है कि पिशाचनी क्या वरसायगी । मनुष्योंके आत्मजीवनका भक्षण करनेवाली, मनुष्योंकी चेतनाको फिरानेवाली चीज आशाको छोड दूसरी कौन होगी ?। तात्त्विक विद्यासे आशा ही समस्त दोषोंकी माँ है, । धिक्कार है आशाकी दुष्टाको, और उससे जकडाए हुएको । धन्य है उन लोगोंको, जिनने आशाकी नाक काट डाली, यही काम करनेवाले, पुण्यशाली सच्चे ऋषि-महात्मा हैं, और इन्हीं ने संसार समुद्र तैर लिया समझिये ! । पापकी वेल, दुःखकी खान, सुखके जलानेकी आग, और भवरूपी पेडका अञ्चल बीज भूत आशा, जिसने परास्त करडाली, वह महात्मा, परमात्मा के ओहदेसे कोई दूर नहीं है । आशा दावानलकी ज्वालाका भय, कहाँतक बतावें-धमेमेघसमाधि कोभी वह ज्वाला उसीदम शान्त कर डालती है । आशा भूतनी के आवेशमें आके आदमी, क्या क्या नहीं करता, दीन दयाजनक विलाप करने लगजाता है, गाने. को बैठ जाता है, नाचनेमें मच जाता है, और विविध अभिनय करनेमें वावला बन जाता है। क्या बतावें, आशाकी गहन गति? जहाँपर वायु नहीं फूंकता, जहाँ मूर्य के किरणोंका प्रताप नहीं दमकता, और जहाँ चन्द्रकी सुधाका वरसना नहीं होता, वहां भी आशाकी लहरिएँ अस्खलित बह जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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