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________________ ૧૨૭ धर्मशिक्षा. कि जिन्होंने आशाको अपनी महारानी-मालिकनी बनायी, उनने त्रिलोकी के लोगोंकी गुलामी करना मंजूर किया, और जिनने आशाको अपनी दासी बना ली, फिर उन महात्माओंके लिये कहना ही क्या, सभी लोग, उनके दास हो गये, तीनों जगत्का साम्राज्य, उनके करयुगलमें आ ही बैठा। यह पक्की बात है कि जो अर्थ, आशासे नहीं जकडाये गये, वे अर्थ, पाई वस्तुओंसे भी अधिक दर्जेवाले है, और जिन अर्थोंको आशाने अपनी गोदमें बैठालिया, वे स्वप्नमेंभी दर्शन नहीं देते । मनुष्य, जिन अर्थोको बहुत प्रयत्नसे साधना चाहता है, वे ही अर्थ, आशाका देशनिकाल करने पर, अनायास सिद्ध हो जाते है। अगर पुण्यकी रोशनी, तकदीरका सितारा चमकता होगा, तो आशासे खून गरम किये बिना भी, मन कामना पूरी होनेमें संदेह ही नहीं है। अगरचे दुर्भाग्यका बादल आदमीके सिरपर धूम रहा होगा, तो मजाल है कि सैकडो दफे आशा नदीमें डुबकी मारने पर भी मनोरथ पूरा होवे?। दरअस्लमें वही पण्डित है, वहीं प्राज्ञ है, वही तपस्वी महात्मा है, जिसने आशाका पल्ला छोडकर संतोषवृत्ति धारण कर ली। संतोष रूपी अमृतसे संतृप्त बने सज्जनोंको, वे, भले दरिद्र ही क्यों न हों?, जो सुख है, वह, इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्ती, कोई भी सम्राटू क्यों न हो?, मगर उन असंतोषिओंको नहीं है। संतोष रूपी बख्तर जिनने पहिन लिया, उनपर, आशा बाणोंकी धारा नहीं पड सकती। संसारमें हजारों उपदेशक महाशय हैं, और लाखों क्या? , करोडों पुस्तकें पडी हैं, उनसे अल्प मतियोंको यदि धर्मका सारांश, अथवा मुक्ति पदके साधने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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