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________________ १२८ धर्मशिक्षा. की रीति मालूम न पड सकती हो, तो कुल पुस्तकोंका सार, सब धर्मशास्त्रोंका परमरहस्य यही अपनी आत्मामें जचा देना चाहिये कि आशा दावानल, शान्त हुआकि मुक्ति पद मिल गया । बस ! आशा ही संसार रूपी वृक्षका प्रधान बीज है, और आशा ही मोक्ष पदके पानेमें बड़ा विघ्न है। आत्माके उपर प्रतिप्रदेश नितनी कर्मवर्गणाएँ लग रही हैं, उन सबका प्रेरक-प्रयोजक, स्वतन्त्र कर्ता, आशाको छोड, और कोई नहीं है । संसाररूपी अजायब ढंगका रथ, एक ही आशारूपी पहियेसे चलता है । आशाको जिनने मार डाला, उनने मोह राजाको मार ही डाला । आशा ही मोह राजाका सर्वस्व परिग्रह है, उसे हटानेसे मोह राजाका जोर कुछ नहीं रहता । क्रोध, लोभ, काम, मद, मान, ईया, वगैरह सभी सुभट आशा देवीके पीछे हैं, आशासे जन्म पानेवाले हैं। आशाहीका पेट यदि फोड दिया जाय, तो फिर क्रोध काम वगैरहका जन्म होना नहीं बनेगा। राग, द्वेष, ये दो पहिये, यद्यपि संसार रथके चलानेवाले कहे जाते हैं, मगर तत्वदृष्टिसे देखनेपर ये कोई स्वतन्त्र नहीं हैं, अर्थात् ये, आशा भूतनी ही के रूप हैं । इन दो रूपोंमें अपनी आत्माको पलटती हुई, अथवा यो कहिए ! ये दो मुख बनाकर द्विमुखी बनती हुई आशा जगत्का-सारे संसारका ग्रास करती है, कुल जीवोंको लुकमे बनाती रहती है। हजारों मिथ्यात्वियोंमें एक सम्यग् दृष्टि, अधिक पुण्यशाली है। और सम्यग्दर्शनियोंमें भी परिमित आरम्भ परिग्रहवाले-देशविरति श्रावक ज्यादह विशेष हैं । तीव्र तपस्या करते' हुए भी अन्य तीर्थक मिथ्या दृष्टि लोग, जिस गतिको नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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