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________________ १२९ धर्म शिक्षा पा सकते, वह गति, विराधकभाव वाले भी गृहस्थ-श्रावकको, सोमितकी तरह कोई दुर्लभ नहीं होती। मास मासतक निरन्तर उग्रतप करनेवाले, और पारणेमें, अंगुलीपर रहे, उतनाही खानेवाले भी मिथ्यात्वि तपस्वि लोग, संतुष्ट श्रावकों की सोलहवीं कलातक भी नहीं पहुँच सकते । हजारों वर्षतक अद्भुत-गहन तपस्या करनेपर भी तामलीतापस, सुश्रावकके पाने योग्य गतिसे भी हीन गतिमें चला गया, इसलिये श्रावक धर्मकी भी बलिहारी है। संतोषी श्रावक, आधा साधु ही है । साधुपन न बन आवे, तो नहीं सही, पर श्रावक धर्मपर तो जरूर आरूढ होना चाहिये । श्रावक धर्म इस कदर पालना चाहिये, कि आशा भुजंगीका पोषण न होने पावे। आशा भुजंगी यदि कोपाविष्ट हो गई, तो फिर देख लो ! कैसा उसका फूत्कार छुटेगा, और अपनी आत्मवृत्तिपर उसकी विषाग्निज्वालाका असर कितना पडेगा। संतोष रूपी नागदमनी औषधी अगर पास रखोगे !, तो मनाल नहीं है कि आशा-सांपनी, तुम्हारे पास फटकने लगे । इसलिये आशा पिशाचनोके पराधीन नहीं, बनना चाहिये और परिग्रहका निग्रह कर संतोष धरना चाहिये। इस प्रकार संतोषत्ति रखनेके साथ मुनिधर्मके ऊपर अनुराग रक्खा जाय, तो फिर कहना ही क्या ? श्रावकगृहस्थ भी, आठ भवोंकी भीतर बराबर मोक्ष पा सकता है। जिन श्रावकोंको, साधु होने पर प्रीति नहीं-साधु धर्म ग्रहण करनेकी अभिलाषा नहीं, उनको, समझो कि श्रावक पन ही बराबर नहीं फरसा । बेशक ! अंतरायके जोरसे साधुपन लेना नहीं बन सके, मगर उसपर प्रीति तो रखनी चाहिये-उसपर खयाल तो रहना चाहिये । दीक्षा लेना, नहीं लेना दूसरी बात है, मगर साधु धर्म पानेकी प्यास-उत्कंठा तो जरूर रखनी चाहिये कि-" में कब अणगार साधु श्रमण निर्गन्थ हो जाऊँ ?"। जहाँवक १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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