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________________ १३० धर्मशिक्षा ऐसी भावना घटमें न जागी, वहाँतक श्रावक धर्म भी आकाशमें उड रहा समझिये ! । जैसे कैदमें पड़ा हुआ आदमी चाहता रहता है कि कब मैं इधरसे छुहूँ ? ", उसी तरह श्रावकोंका भी यही फर्ज है-" कब मैं संसारके फंदेसे फौरन छूट जाउँ ?" ऐसी प्रबल भावना, अपनी मनो भूमीपर आलेखा करें । जिनको, दिनरात संसारके फंदेमें परिश्रम मालूम न हुआ, संसारकी अश्लील वृत्तियों पर नाखुशी न जागी, वे धर्मकी सच्ची सडक पर नहीं आये, समझिये ! । सच्चे धर्मात्मा गृहस्थोंको तो संसारकी गरम गरम आग नहीं सहन हो सकती, मगर क्या करें नहीं चले तब दुःखसे उन्हें संसारमें रहना पड़ता है। कितने भी सोनेके खूबसूरत पिंजरेमें तोतेको रक्खो, मगर वह हर्गिज सुख नहीं मानेगा, उसी तरह धर्मात्मा गृहस्थ भी, कितनी ही बडी भारी दौलतसे लदा हुआ क्यों न हो ?, मगर हर्गिज संसारमें सुख नहीं मान सकता। धर्मात्मा गृहस्थके हृदयमें हमेशा संसारकी दुर्गुणतापर, संताप छुटता रहता है कि "संसारमें सब लोग स्वार्थी, कौन किसका हो सका ? सम्बन्ध मतलब, प्रेम मतलव, मन्त्र ही वह विश्वका । सम्बन्ध तबतक चमकता, जब स्वार्थ पूरा नहि भया सम्बन्ध पूरा हो गया, जब स्वार्थ पूरा हो गया " ॥ "प्रेमी जिसे हम मान बैठे, जिस विना दुःखी रहे उस शख्सका तो भटकता जी दूसरे ही में रमे । हा! हा! हमारा कौन?, हम भी हो सके किसके कहां . यों ही सदा मोही बने रहते हमें क्या मुख यहां।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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