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________________ . धर्मशिक्षा धमाबदा. १३१ यों ही हमारा जम्म यह यदि खतम ही हो जायगा, तोक्या कभी आशा बने, जी सुख जगह को पायगा?। क्या धर्म से सुख, पाप से दुख शास्त्रमें न सुना गया, * तो दुःखकारण पाप करना, उचित क्यों समझा गया | अपार पुण्यकी राशिका उदय हो, तो साधु होने की भा. वना बनी रहती है । साधु होना, लडकोंका खेल नहीं है, सारे संसारके जबरदस्त किले को तोड देना है । साधु होने की उत्कट भावना रखते हुए ही क्यों?, साधु धर्मके पानेकी तय्यारीपर आये हुए भी कितने ही महाशय, बजरिये अन्तरायके ऐसे पीछे हट गये, कि फिर उन्हें दीक्षा लेनेका नाम ही नहीं रहा । कितने ही तो, साधु हो के भी दुर्भाग्यके पिएसे ऐसे भ्रष्ट बन गये कि पगडी पहिनके गृहस्थ बन गये । कई तो कपटी-प्रपंची, ढोंगी-धूर्त बनके झूठा-साधुपनका दावा करते हुए अपने पेट भरने लगे । इसी लीये कहा गया है कि साधुधर्म क्या है, मानो! सिंहनीका दूध है, बड़े सत्वशाली ही लोग उसे पी सकते हैं, कमजोरोंको वह नहीं पच सकता, उलटी आत्मजीवनकी खराबी हो जाती है । साधुपन लेना तो उतना कठिन नहीं, मगर लेके निबाहना बडा कठिन है । दीक्षा लेनेवाले लोग. लेतो लेते हैं, मगर पीछेसे इस कदर हीजडे बन जाते हैं, कि चारित्रधर्मको मट्टीमें मिला देते हैं। इतनेसे भी शांत न होके झूठे घमंड-झूठी चतुराई से अपने चौपट किये चारित्रकी भी टांग ऊँची रखकर पापको इस कदर रगडते हैं, कि फिर चारित्रधर्म मिले या नहीं मिले, इस का बडा संदेह रह जाता है । अब्बल अपनी आत्माकी शक्तिका इम्तिहान करके साधु बनना चाहिये, साधु बनके अच्छी तरह * ये श्लोक स्व रचित "सूक्ति-सुधा" मेंसे उद्धृत किये गये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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