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धर्मशिक्षा.
૧૨૨ चारित्र धर्मका पालन करना चाहिये । आवरण वशसे अगर दुनिवार-शिथिलताका आक्रमण हो जाय, तो लोगोंके सामने साफ व्यवहार रखना चाहिये कि "मैं शिथिल हूँ, मन्द क्रिया करता हूँ, मेरेसे, जैसा चाहिये, वैसा चारित्रधर्म, नहीं बन आता, इसीसे पूर्ण वन्दना करानेको योग्य नहीं हूं" मगर माया-मृषावाद कभी नहीं सेवना। प्राण क्यों न चले जायँ, मगर अपनी आत्मामें असत् (अविद्यमान) चारित्रधर्मको सत् (विद्यमान) रूपसे कभी प्रकाश नहीं करना चाहिये । शरम आती हो, तो अच्छा चारित्र पालके साधुपनकी सच्ची ख्याति पा लो!, मगर आचारोंसे भ्रष्ट हो के भी झूठा-साधुपनका दावा करना, किसी हालतमें अच्छा नहीं । लोकमें शरम आती है, इस लिये साधु धर्मका, ऊपरका सूखा बनावट ढोंग रखना अच्छा समझा जाता है, तो भला ! भीतर-आत्माकी शरम नहीं आती, तीर्थकर परमात्माकी भी शरम नहीं आती ?, इनकी शरम तो पहिले रखनी चाहिये । लोग तो हजारों मुखवाले हैं, उनका क्या ठिकाना है ? वे तो सदाही खुले मुंहसे ज्यों आवे, त्यों ही भसड देते हैं, साधु आदमीको भी, कहनेवाले लोग दुरात्मा कह डालते हैं, और दुर्जन-बदमाशको भी सत्पुरुष समझ लेते हैं, कहिये ! अब लोककी मर्यादा कहाँ रही ?, इसलिये वास्तवमें अपनी आत्माकी शरम रखनी चाहिये, और भयङ्कर काँसे डर कर यथाशक्तिमुताबिक-जमाने चारित्र धर्म पालना चाहिये। किसी पेडमें ह. जारों शाखाएँ होती हैं, जब दूसरे वृक्षोंमें उनसे कम होती हैं, मगर खयाल रहे, पचास पचीस भी शाखाएँ रहेंगी, तब भी वृक्ष बराबर कहा जायगा, वैसे ही, कोई साधु, बडा तपस्वी हो, कोई उत्कृष्ट क्रियापात्र हो, जब कोई, मौनी, योगी, ध्यानी, ज्ञानी हो, कोई ज्यादह क्रिया-तपस्या करनेवाला हो, कोई कम क्रिया तप
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