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________________ धर्मशिक्ष. १४३ स्या करता हो, इस प्रकार भले ही क्रिया वगैरहमें तरतमता रहो, तो भी साधुपन बराबर कायम रहता है। हकीकतमें मूल बातें नष्ट न होनी चाहिये, यथोचित क्रिया प्रवृत्त, और कंचन-कामिनीके संगसे दूर हटा हुआ शुद्ध उपदेशक साधु, बराबर साधु है, मगर कंचन कामिनीमें फसाँ हुआ, उत्कृष्ट तपस्वी, प्रबल क्रिया कांडी ही क्यों न हो ?, साधु नहीं है । इस जमानेमें जैन मुनियोंकी संख्या बहुत थोडी है। दूसरे साधुओंके आगे हमारे जैन साधु वर्ग, आटेमें निमककी बराबर मालूम पडते हैं । यह पक्का समझें कि साधुओंके बिना शासनका उदय, हर्गिज न होगा। अचल तो गृहस्थोंमें, इंग्लीशमें बडे बडे प्रोफेसर बने हुए भी लोग, धर्मकी तालीमसे बहुत कुछ बाह र हैं, भाषाज्ञान मात्रसे विद्याका परिपाक हुआ नहीं कहाता, विद्याका परिपाक दूसरी चीज है। जहां दिनरात संसारके फंदेमें, अथवा रूपचंदजीकी गुलामी करनेमें चित्तका दाह होता हो, वहाँ विद्याका परिपाक होनेकी क्या बात । जैन शास्त्र जैसे गहन शास्त्र, संसारमें कोई नहीं, उनका निष्कलंक रहस्य प्राप्त करना, निश्चिन्त बुद्धिमानोंके सिवाय, औरोंसे नहीं हो सकता। और निश्चिन्तपन, प्रायः साधुपन विना नहीं मिल सकता । परमपुरुषार्थ फैलानेका मैदान साधुवृत्ति ही है । साधुवृत्तिमें आया हुआ पुरुष ही, बेधडक जैन धर्मकी पताका फरका सकता है । साधु लोग, राजाके राजे महाराजा हैं, उन्हें किसीकी कुछ पर्वाह नहीं रहती, और इसीसे नीडर दिलसे सबकी सामने सब प्रकारका उचित व्यवहार साधुओंसे हो सकता है, और तबही जैन शासनकी रोशनी, प्रसरनेके हदपर आसकती है । जैन शासनके खास प्रभावक, जैनशासनको सिंगार देनेवाले महात्मा मुनिजन ही हैं, इसमें कौन क्या कहेगा ? । इसी लिये ह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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