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________________ ૧૩૪ धौशिक्षा मारा यह वक्तव्य है कि जैन जातिमें, साधुओंको बढानेकी परम आवश्यकता है । जैन जातिमें साधुलोग बहुत थोडे हैं, इस लिये जैन साधु जातिकी बढती करने के लिये साधुओंकी तर्फसे अगर प्रयत्न होवे, तो उसमें गृहस्थोंका फर्ज है, कि सहारा देते रहें। साधुओंके पकनेका कोई पेड नहीं है कि जल्द जल्द साधु बढते जायँ । साधुकी वृद्धि पहले जमानेमें किस तरीकेसे होती थी? इस तरफ खयाल करनेपर, किसी सज्जनको, खेद हुए सिवाय नहीं रहता कि वर्तमानमें, साधुओंका कितना भयंकर दुर्भिक्ष हैं ? जैन मुनिजनोंका कैसा भयानक दुष्काल है ? । इस दुष्कालको शांत करनेके लिये प्रयत्न करते हुए मुनिवरोंको, गृहस्थ लोग सहायता दें, कोई विरुद्धपक्षी न होवे । जडमें कालुष्यको पैदा करता, धर्मरूपी पेडका उन्मूलन करता, नीति, क्षमा, दया, विवेकरूपी कर्मलिनियोंको बिगाडता, लोभ सागरको बढाता, मर्यादा रूपी तटको तोडता, और शुभ भावनारूपी हंसको प्रवास देता हुआ-परिग्रहरूपी नदीके पूरका जोर, कितना क्लेशदायक है, यह खयालमें रहे । अत्यंत धनकी लोलुपता, सचमुच कलहरूपी हाथीके लिये विन्ध्याचल है। कोपरूपी गृध्र (गिद्ध) के लिये स्मशान (मरघट) है । व्यसनरूपी सांपके लिये रन्ध्र (बिल) है । द्वेषरूपी चोरके लिये रातका प्रारम्भ समय है । पुण्यवनके लिये दावानल है । मृदुतारूपी मेहके लिये प्रचंड पवन है । और नय (नीति रूपी कमलके लिये हिम है। प्रशमका दुश्मन, अधैर्यका मित्र, मोहकी विश्रामभूमी, पापों की खान, आपदाओंका स्थान, दुध्यानका लीला वन, व्याक्षेपका खजाना, मदका मंत्री, शोकका जनक और कलहका क्रीडाघर कौन है ?, परिग्रह है, इसलिये विवेकी महानुभावोंको परिग्रहके मदमें उन्मत्त नहीं होना चाहिए । जैसे आग, इन्धनोंसे तृप्त नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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