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________________ १३५ धर्मशिक्षा होती, समुद्र नदीके जलोंसे तृप्त नहीं होता, वैसे प्राणी धनके ढेरसे भी तृप्त नहीं होता; परंतु यह नहीं समझता कि "यह सब धन दौलत माल छोडकर परलोकमें मैं अकेला जाऊँगा, फिर किस लिये फिजूल पाप करके पापी बनूँ"। संसारमें लोग भयंकर अटवी (जंगल) में भ्रमण करते हैं, विकट देशान्तरोमें पर्यटन करते हैं, गहन समुद्रकी मुसाफिरी करते हैं, कृषिकर्मका बेहद्द कष्ट उठाते हैं, कंजूस-मक्खीचूसकी गुलामी करते हैं, और लडाईमें शामिल होते हैं, ये सब किसके प्रभाव हैं?, लोभ राक्षसके । लोभ ही परिग्रह परिमाणवतका कट्टा दुश्मन है, लोभ ही मुक्ति नगरीके पथ (मार्ग) के मुसाफिर हुए लोगोंको उपद्रव करनेवाला चोर है, लोभ, मोहरूपी जहरपेडका मूल है, लोभ, सुकृत सागरको पीनेवाला अगस्त्य है, लोभ, क्रोधानिका अरणी ( काष्ठ विशेष ) है, लोभ, प्रताप रूपी सूर्यको ढांकनेवाला मेह है, लोभ, कलहका क्रीडा घर है, लोभ विवेक चन्द्रके लिये राहु है, लोभ, विपदा रूपी नदीका समुद्र है, और लोभ, कीर्तिरूपी लता संततिका उच्छेदन करनेवाला हाथी है । धर्मवनके दाहसे विशेष प्रज्वलित हुए, दुःख रूपी भस्मका जन्म देनेवाले, अकीर्ति-बदनामी रूपी धूमको फैलानेवाले, और धन रूपी इन्धनोंसे उत्तेजित बने हुए-लोभ रूपी अ. नल ( आग) में, गुणोंका समूह, सचमुच शलभ (टिड्डी) का आचरण करते है । महर्षियोंका यह उपदेश है-उनके घरमें कामधेनुका प्रवेश हुआ। उनके सामने कल्पवृक्षका जन्म हुआ। उनके करतलमें चिन्तामणी उपस्थित हुई। उनके समीपमें निधि प्राप्त हुआ । जगद, उनके वशमें हुआ। और स्वर्ग-मोक्ष लक्ष्मीकी माप्ति, उनके लिये निःसंदिग्ध हुई, जिन्होंने, सकल दोषानलको शान्त करनेमें मेह समान-संतोषका पल्ला पकडा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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