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धर्मशिक्षा.
आस्रव-शुभाशुभ कर्मोंको आत्मामें दाखिल होनेका दरवाजा है। संवर-काँको रोकनेवाला एक आत्माका शुभ प्रयत्न है ।
वंध-क्षीर और पानीके सम्बन्धके बराबर, आत्मामें और कोके संयोग होनेका नाम है। निर्जरा-तपश्चर्यादिद्वारा कौके नाश करनेको कहते हैं।
मोक्ष-समस्त कर्मोंका बिलकुल अभाव होनेका नाम है । जिस वक्त आत्मा, समस्त काँसे बिलकुल रहित होता है । उसी वक्त आत्माकी अर्ध्व गति होती है, और लोकके अग्र भाग ऊपर जीव, अवस्थित रहता है। वही मुक्तिपुरी समझनी चाहिए । किन्हीं लोगोंका कहना होता है कि अगर समस्त कर्म बिलकुल नष्ट हो गये, तो फिर इह लोकमें वा परलोकमें, बन्ध होनेका संभव है नहीं, अर्थात् अकर्मक जीव यहांही क्यों न रहे, ऊपर क्यों जाय ? । यदि कम कुछ अवशिष्ट रहा है, तो ऊपर जाने पर भी संसारयंत्र चलता ही रहेगा। मतलब यह है कि समस्त कर्मीका विनाश होने पर, ऊर्व गमन क्यों होना चाहिए ? । इसके उत्तरमें यह समझना चाहिये कि जैसे एक कुम्भारने अपने हस्तदंडके प्रयोगसे, चक्रको चलाया, फिर वह कुंभार अपना हस्त दंडका प्रयोग नहीं करता है तब भी वह चक्र, बहुत काल तक चला करता है । वैसे ही कर्मके प्रभावसे घूमता हुआ आत्मा, कर्मके समूल नाश होने परभी, पूर्व वेगवशात् मुक्त दशामें ऊपर जाता ही है । और भी मुक्त जीवकी उर्ध्वगति होनेका प्रकार यह है कि जैसे एरडंकी सिंगका बन्ध विच्छेद करनेसे एरंड,एकदम ऊपर आ जाता है, वैसे ही कर्म बन्धका विच्छेद होने पर,मुक्त जीवकी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति प्रकट होती है। मुक्तावस्थामें जीव,अनंत आनंदमें रमण किया करता है,वह आनंद,
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