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________________ ४३ धर्मशिक्षा. इन्द्रियादिसे किया हुआ नहीं है, क्योंकि मुक्तजीव को,शरीर इन्द्रियादिकका बिलकुल अभाव ही हो जाता है,मगर आत्माका स्वाभाविकवास्तविक सुखानंद मुक्तजीवको प्रकट होता है। वह आनंद, संसारमें कर्मोंसे दबा रहता है, इस लिये सांसारिक जीवोंके अनुभवमें नहीं आ सकता।अतएव परम आनंदके उद्देशसे मुमुक्षु लोग,संसारको छोडकर मुक्तिके साधनोंकी साधना करने लग जाते हैं; मोक्षमें यदि आनंद (सुख) नहीं होता तो कोई बुद्धिमान् पुरुष मुक्तिके लिये प्रति नहीं करता । मगर सैंकडो बुद्धिमान् लोग मुक्तिके लिये प्रति करते तो हैं, अतः मुक्तिमें परमानंद मानना न्यायसिद्ध बात है। ज्ञान-सुख वगैरह आत्माके वास्तविक गुण हैं । लेकिन वे गुण सं. सार अवस्थामें दबे रहनेसे पूर्ण रूपसे प्रकट नहीं हो सकते । जो इन्द्रियादिसे सुख पैदा होता है, वह नैमिचिक गुण समझना चाहिये, न कि आत्माका वास्तविक स्वाभाविक गुण । ___ दुःखाभाव ही मुक्तिका स्वरूप कहनेवाले पंडितोंके हिसाबसे मूर्छा वगैरह सांसारिक अवस्थाएं भी मुक्ति पदार्थ हो जायेंगी । कहनेवाले लोग कहते हैंकि मुक्तिके सुखमें राग रखता हुआ पुरुष, कितनी भी मुक्ति साधनोंकी साधना करें,तो भी मुक्तिको नहीं पास केगा, क्योंकि राग, मुक्तिको रोकनेवाला है, संसार-बन्धको पैदा करनेवाला है । बात तो ठीक है, परन्तु साथ साथ इतना भी समझना चाहिये, कि दुःखाभावरूप मुक्तिके लिये प्रयत्न करता हुआ पुरुष, दुःखका द्वेषी होनेस कैसे मुक्तिको पावेगा ? । अगर कहोगे कि योग-ध्यानमें लीन रहा हुआ पुरुष, किसीके ऊपर फेष परिणाम नहीं रखता है, तो फिर योग-ध्यानमें लीन रहा हुआ पुरुष किसीके ऊपर राग नहीं रखता हुआ मुक्ति क्यों नही पावेगा?। अतः मानना चाहिए कि त्रिलोकीमें चारों तरफसे सुरेन्द्र-नरेन्द्रोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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