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________________ धर्मशिक्ष. १६३ १६३ जावे । संसारमें जितना क्लेश विरोध झगडा बखेडा क्रोध द्वेष जन्म लेता है, वह प्रायः धनकी प्रातिरूप प्रधान मतलबकी हानिके संबंध होता है । स्थिरता देवीका शरण लेके यह भावना जरूर रखनी चाहिए, कि "किसीका किया बुरा कदापि नहीं होता, यदि अपनी आत्मा पर सद्भाग्यका तेज दीप रहा है। जो चीज हमारी है, वह हमारी ही है, उस पर देवता तक का भी आक्रमण नहीं हो सकता । इसलिये लाभ हो, या टोटा हो, मारे आनंदके फूलना नहीं चाहिए, और दुःख रूप तिमिरसे अंधा नहीं होना चाहिए । कोमल दिलसे संसारके काम करता हुआ गृहस्थ भी संसार बन्धनको बराबर ढीला कर देता है, इसमें कोई संदेह नहीं। "आत. ध्यान बुरा है, बुरे कर्मोंको जन्म देनेवाला है और तिर्यच गतिको लेजानेवाला सार्थवाह है " ऐसा समझकर बुरे परमाणुओंको मनमें दाखिल होने न दें। मारने पीटनेकी दुर्भावना करता हुआ मनुष्य, इस कदर क्लिष्ट काँको बांधता है कि जिनसे नरक आदि दुर्गतिका मिहमान हुए सिवाय नहीं रहता । सब कुछ जब कर्मके ताल्लुक हैं-कोई स्वतन्त्र हो के भला बुरा नहीं करता, तो किसे मित्र माना जाय किसे दुश्मन कहा जाय ?। मारना पीटना बिगाडना तो दूर है, मगर उसका रौद्र अध्यवसाय ही मारने पीटनेकी क्रियाका पाप पैदा कर बैठता है, तो फिजूल मन परिणतिको क्यों विगाडो? और नरकगतिको जाने की टीकट क्यों लो?। पापकर्मका उपदेश करके फिजूल कर्म बांधना यह अक्लमंदी नहीं है । जिसमें अपना मतलब न हो-अपना प्रयोजन न हो, उस काममें-जो कि पापसे भरा है-उपदेश दे कर प्रेरणा कर के पापका भागी बनना यह केवल मूर्खता का नमूना है । हाँ अ. पना मतलब हो, अपने स्वजन-कुटुंब संबन्धी प्रसंग आ पडा हो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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