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________________ १६४ पशिक्षा. तो बात न्यारी है, क्यों कि गृहस्थों को दाक्षिण्य की जगह पर सब व्यवहार चलाना पडता है, मगर जहाँ दाक्षिण्यका स्थान नहीं है, वहां फिजूल पापकर्म का उपदेश नहीं करना, और हिंसाजनक चीजें नहीं देना । पूर्वोक्त प्रमादाचरण विवेकी जन नहीं करते । संसारकी विचित्र-नानारूपकी घटनाएँ निहाली जायँ-उन तर्फ निगाह की जाय, तो एक प्रकारकी यह नाटकशाला ही प्रतीत होगी, क्योंकि अनादि कालसे नये नये पाठका खेल करते हुए प्राणीगण चित्र विचित्र आश्चर्य घटनाओंमें रम रहे हैं। रात थोडी और वेष ज्यादह । थोडी तो आयुकी स्थिति और मनोरथोंका कोई थाह नहीं । ऐसी भयंकर भव स्थिति की तरफ खयाल दे के प्रमादाचरणोंसे हटजाना चाहिए । इन्द्रियोंके वश हो के प्राणियोंने बडा कष्ट उठाया, और उठाते भी जा रहे हैं, तो अब सचेत होनेका समय है। यों ही बाललीला हमेशा रहा करेगी तो सोचो ! भव से छुटकारा कैसे होगा, और परमानन्द दशा कैसे पाओगे ?। जो चीजें बाह्य दृष्टिसे रमणीय मालूम पडती हैं, वे ही अन्तर्दृष्टि से देखोगे तो निःसार रूपसे मालूम पडती हुई वैराग्यका जन्म देंगी। ऊपर ऊपरकी स्थूल नजरसे विषयान्ध नहीं बन कर आत्म तत्व पर चित्त लगाना चाहिए। ज्यों ज्यों अन्तर्दृष्टि को रोशन बनाते चलोगे, त्यों त्यों पुराणी प्रवृत्ति बाललीला-मूर्ख चेशा ही भासेगी, और पौगलिक विषयोंकी रौनक जहरके रस सरीखी जानोगे, बस ! क्या कहें, समझ सको तो समझ लो !, अनर्थदंड कैसा बुरा है, लेख गौरवके भयसे ज्यादह नहीं बढाते । पूरा हुआ तीसरा गुणवत-आठवाँ अनर्थ दंडव्रत । ॥ गुणव्रत खतम हुए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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