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________________ धशिक्षा. करके दुर्बुद्धिरूप विष फैला देगा । पाठकवर ! आप समझगये होंगे कि धर्म एक मामूली चीज नहीं धर्मराजाके प्रभावसे लोग परमानन्दी बनजाते हैं। इस संसार चक्रमें भ्रमण करते हुए प्राणीको सर्व प्रकारकी संपत्ति प्राप्त हो चुकी, परंतु सत्य धर्मके दरवाजेमें प्रवेश नहीं हुआ। जिसके जरियेसे जीवको दारिद्य नदीमें अभीतक डुबकी मारनी पड़ती है। अगर सत्यधर्मकी सेवा मिली होती तो हर्गिज आजतक इतनी विपत्ति नहीं उठानी पड़ती। धर्म एक भव रोगको मिटानेका परम औषध है। धर्म एक भवक्लेशकी हत्या करनेमें बडा शूरवीर है। अब समझिये कि सत्य धर्म कहां ? और हम कहां?। दुनियां में हजारों धर्म जलबुबुदके बराबर पैदा होते हैं और जलबुबुदके बराबर प्रलीन होजाते हैं। और पंडिताभास मिथ्याभिमानी लोग एक नया समाज खडा करके विद्याकीटांग तोडनेको प्रयत्नशील होते हैं। मगर वे लोग यह नहीं जानते हैं कि क्षणिक संसारसुख क्षणविनाशी है, और झूठी इजतके पीछे जूता खाना पडता है । सत्य मुनियोंकी श्रुतियों के सत्य अर्थको छुपाकर कदाग्रह से असत्य अर्थको फैलानेमें अल्पज्ञ समाज अपनेको बहादुर समझती है । मगर श्रुति विरोधि सत्रविशति अर्थ प्ररूपणा के दुरंत परिणामको अपने खियालमे नहीं लाते है ? सैलावे ? मतलबी पुरुष हमेशा अपने मतलबमें ही गुम रहेते हैं. दुनियामें जितने धर्म प्रचलित हो रहे हैं वे सब धर्म परस्पर विरोधी होकर अन्यके खंडनके साथ अपनी जय कीर्तिका ढंढोरा पिटवाते हैं। क्या उन धर्मोको निकालने वाले सब सर्वज्ञ हैं ? सर्वदशी हैं ? अगर मत नहीं हैं तो फिर स्वकल्पित बातोंको प्रचलित करने में उन्मत्त होना बिलकुल अज्ञानता ही है न ? जो जो नये नये विचार तरंग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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