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धर्मशिक्षा. रहित कहा जा सकता है, जो कि सर्वज्ञने प्रकाशित किया है। ऐसा सनातन धर्म बापदादाओंसे अनादृत ही क्यों न हुआ हो?मगर बुद्धिमान् लोग उसकी अन्वेषणामें कटिबद्ध रहते हैं। जब यह बात निश्चित है कि मोक्षका मार्ग एकही है। क्योंकि विरुद्ध कारणोंसे एक कार्य कभी उत्पन्न नहीं होता है। जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्तिकासेही होती है, न कितन्तुओंसे, तो मोक्ष प्रदाता मार्गभी परस्पर विरोधि कैसे होंगे ? इसलिये परीक्षाको सहन करनेवाला, सर्वज्ञदेव भाषित एक ही धर्म-मार्ग मोक्षसाधक होसकता है। अतः बुद्धिमानोंको चाहिये कि सत्यासत्य धर्मरुप रत्न कांचोंके पुंजमेंसे दृढ परीक्षाद्वारा सत्य धर्मरूपी रत्न उठालेवें । कांच रत्नका भ्रम न रक्खें । किंतु यह बात तबही होगी जवकि कुल परंपरासे आये हुए धर्मका कदाग्रह रफा होजायगा। कुल परंपरापाप्त धर्म सत्यही क्यों न हो? लेकिन उस सत्य धर्ममें सत्यत्वका परिचय होनेपर उस सत्य धर्मका पक्षपाती वनना समुचित है। क्योंकि सम्यग् ज्ञानपूर्वक श्रछा करना यही मोक्षका परम साधन सभी शास्त्रकारोंकी उक्तियों से निकलता है।
इस कलिकालमें पूर्व महात्माओंकी तरह सूक्ष्मतर प्रज्ञा यद्यपि दुर्लभ होगई है. तथापि मध्यस्थ पुरुषकी बुद्धिमत्ता धर्मकी परीक्षा करती हुइ परमार्थ सत्यही धर्ममें विश्रान्ति लेती है इसमें कोई सन्देह नहीं, मगर मूर्ख पुरुष और कदाग्रही पंडितके लिये तोधर्मकी दर्लभता शास्त्रकारोंने बताई है, वातभी सच्ची है, क्योंकि धर्म जैसी परम वस्तु समस्त जगत् को यदि प्राप्त होजाय तो जगत् दरिद्रही कैसे रहेगा ? पंडितभी क्यों न होमगर वह यदि हीनभाग्य होगा तो जरूर कदाग्रह रूपसर्प उसके मनोमंदिरमें घुसकर और विवेकरुपी दूध एकदम पी
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