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धर्मशिक्षा.
करना अत्यावश्यक है। न कि बावा वाक्यं प्रमाणम्' इस मूर्ख रूढिपर बैठ रहना चाहिये। परंतु यह अवश्य खयालमें रहे कि हमारी बुद्धि जगद्व्यापिनी नहीं है, अनंत पदार्थ हमारी बुद्धिसे अभी बहार हैं। दो अक्षरके ज्ञान मात्रसे पंडिताभिमानी बनना और नया समाज खडा कर देना यह केवल मूर्खताका नमूना है, असम्बकालापोंमें पांडित्य नहीं ठहरा है, किन्तु व्याकरण साहित्य इतिहास दर्शनशास्त्र तर्कशक्तिद्वारा बुद्धिका परिपाक होना, यही विद्वान्की ल्याकत कही जाती है। अपने बेर मीठे दूसरे के खट्टे ' ऐसे तुच्छ विचारोंसे तत्व प्राप्ति नहीं होती है । किंतु स्वपर धर्मके विभागको छोडकर परीक्षा रूपी कसौटीसे जिसकी कीमत चमत्कारिणी मालूम पडे, वही धर्म अपना उपादेय होना चाहिये । कुलधर्मका कदाग्रह वडा बुरा है । जीवनकी खराबी करनेवाला है । इसी विषयमें “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो नयावहः," यह वाक्यभी पूर्णतया सम्मति दे रहा है। तथाहि.
'स्त्र, यानि अपना अर्थात् आत्माका असल जो वास्तविक धर्म, उसका पालन करते हुए मनुष्यको निधन, यानि मरण अथवा विपत्ति होजाती हो तो बेशक हो जाओ, परन्तु 'पर, धर्म, अर्थात् शत्रुता करनेवाला याने आत्माकी वास्तव लक्ष्मीका टुटाक (चोर) अतएव आत्माका द्रोही धर्म हमेशाके लिये भयको पैदा करता है।
पाठकगण !इस गीता श्लोकसेभी कुलधर्मका कदाग्रह निषिक ही समझो !। वही धर्म अपना समझना चाहिये, जो कि किसी प्रकार बाधासे वाधित न हो और वही धर्म सर्वथा बाधा-दोष
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