SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धशिक्षा. मति भोले लोगों के हृदयमें ऐसा प्रहार करती है कि विचारे खडे भी नहीं होसकते, यानि धर्मका रास्ता नहीं सूझनेके कारण आस्तिक्य गुणसे परिभ्रष्ट हो जाते हैं; यह तो मेरा कहना होही नही सकता कि समस्त भूमंडल एकही धर्ममें आ जाय । एक धर्ममें यह जगत् कभी उपस्थित न हुआ न होगा, वरना एक ही सत्य धर्मसे सर्व जगत्का निस्तार होने पर दुर्गति के द्वारको अर्गलाही देनी पडेगी, यानि नरकादि दुर्गति शून्य हो जावेगी। इसलिये सच्चा और मिथ्या धर्म अनादि कालसे चला आरहा है, इसमें कौन क्या कहेगा? लेकिन वर्तमान हवासे मालूम पडता है कि नवीन २ मजहब निकालनेमें लोगोंको बहुत शौक हो गया है । हमभी थोडा कुछ टटु चला करके इज्जत उठावें, ऐसा समझ कर उटपटांग प्रलापों की पोथी थोथी बनाके प्रजामें प्रवाहित कर देते हैं। परन्तु समझना चाहिये कि यदि सच्ची इज्जतकी गठडी उठानी हो तो परमात्मा के सत्यधर्ममें आरूढ हो कर के पवित्र आचार तपश्चरणादि द्वारा दुष्ट कों को क्षीण करें और इसीसे अपरिमित-अद्भूत-अविनाशी-लोकोत्तर आनन्द प्राप्त करें, शारदपूर्णिमा चन्द्रकी किरण सहोदर चमकीली विश्वव्यापी यशोदेवीकी वरमालाभी पहिनें । स्वकपोल कल्पित असत्य मत फैलानेसे फायदा होना तो दूर रहा, किन्तु एकान्त पापोंकी गठडी उठानी पडती है और भवाटवीमें चिरतरकाल परिभ्रमण करना पड़ता है। कोईभी स्वाभिमाय प्रकाश करने के पहिले सोचो ! कि यह अभिप्राय सिद्धान्तानुकूल है वा विपरीत है। पूर्व ऋषि वा माचीन विद्वानों के आगे हम लोगोंकी कौन बुद्धि ? हम क्या कोई नया तत्त्व निकाल सकते हैं। अलबत्ते ! समस्त शास्त्रोंकी मीमांसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy