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________________ धर्मशिक्षा. ४७ विभाग हैं, जिन्हें आरा कहते हैं, अर्थात् छः आरे उत्सर्पिणीके, और छः आरे अवसर्पिणीके होते है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यह सार्थक नाम है, उत्सर्पिणी काल उसे कहते हैं, जिसमें तरह तरहकी संपत्तियाँ बढती रहें, और अवसार्पणी कालमें संपत्तियां घटती जाती हैं । उत्सर्पिणीके जो क्रमसे छः आरे हैं, उनसे विपरीत ढंगवाले छः आरे अवसर्पिणीके समझने चाहिये । अवसर्पिणीकालमें पहला आरा चार कोडाकोडी सागरोपम, दूसरा तीन कोडाकोडी सागरोपम, तीसरा दो कोडाकोडी सागरोपम; चौथा कम ४२ हजार वर्ष, एक कोडाकोडी सागरोपम, पांचवा २१ हजार वर्ष, और छठवा आरा २१ हजार वर्षका है। इनसे उलटे उत्सर्पिणीके छ आरे समझिये :, अर्थात् उत्सर्पिणी कालका प्रथम आरा २१ हजार वर्ष, और दूसरा आरा २१ हजार वर्षका है, इस तरह शेष चार आरे भी समझ लीजिए । इस हिसाबसे उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल, दोनों दश कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाले हुए। ये दोनों मिलकर २० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाला एक कालचक्र होता है। ऐसे कालचक्र अनन्त चले गये, और अनंत चले जायेंगे । कालकी कोई सीमा नहीं है। वर्तमानमें पांचवा आरा, अवसर्पिणी कालका चल रहा है। जब अवसर्पिणीके चौथे आरेमें चरम तीर्थकर परमात्मा महावीर देव काल कर गये, उस समयसे लेकर तीन वर्ष और साढे आठ महीने गुजरने पर पांचवा आरा शुरू हुआ। आज महावीर देवको काल किये २४३९ वर्ष बीत चुके, वर्तमानमें वीर संवत् २४४० है। पांचवे आरेका नाम है-दूषमा, क्योंकि यह आरा मुःखमय है । और इसके पहले जो चार आरे हो गये, उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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