________________
४६
धर्मशिक्षा. विद्वान् लोग भी इस विषयमें मुग्ध ही रहा करते हैं। जैनदर्शनकी प्रकियामें निपुणता रखनेवाले बुद्धिमान् लोग ही इस विषयकी कुछ खुशबू पा सकते हैं। बडे बडे शंकराचार्य वाचस्पति वगैरह विद्वानोंका दिमाग इस विषयमें चकर खा गया है। और विद्वत्ताकी टांग उंची रखनेके लिये-सव दर्शनोंकी पंडिताईका दावा करनेके लिये, जैनोंकी सप्तभङ्गीको यथार्थ नहीं समझ कर,ऊटपटांग रीतिसे उसका खंडन करके अपनी प्रज्ञाका परिचय देनेमें उन लोगोंने कुछ बाकी नहीं रखी है । इस विषयका परिज्ञान करानेके लिये, जैनाचार्योंने बडे बडे महार्णव बनाकर विश्वमें विद्या अमृतका प्रवाह फैला दिया है । जैसे-स्याहादरत्नाकर ८४००० श्लोक प्रमाण वादि श्री देवसूरिका बनाया हुआ अपूर्ण विद्यमान है । सम्मति तर्क-विशेषाव. श्यकभाष्य टीका-अनेकान्तजयपताका-नयचक्र-नन्दी टीका तस्वार्थ टीका वगैरह और भी बहुत समुद्र अब भी झलक रहे हैं । ऐसे ग्रंथोंको बराबर देखे विदुन स्याउाद सप्तभंगीका खंडन करनेवाला पुरुष, खुद आपही खंडित हो जाता है । खंडन करनेवाले लोग, रत्नका भी खंडन कर देते हैं,और काचकाभी खंडन कर देते हैं। मगर सुपण्डित लोग, रत्न-काचोंका भेद समझ कर रत्नकी रक्षा करते हैं । रत्नका पालन करते हैं । रत्नसे, अपनी आत्मामें आ नन्दकी लहरी दाखिल कराते हैं । इस लिये महानुभावोंको समझना चाहिये कि रत्न ओर काचका पहिले इम्तिहान करें, न कि भ्रान्त होकर काचकी जगह पर रत्नको फोड देवें और फैंक देवें।
पाठको ! जैनधर्मके मूल उपदेशक सर्वज्ञ तीर्थंकर देव हैं। वे लोग हरएक उत्सार्पणी और अवसर्पिणी कालमें चौईस पैदा होते हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये कालचक्रके दो विभाग हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें भी हर एकके छः छः
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com