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धर्मविका. धर्मके लिये जो कुछ पैसा खर्चना बोल दिया हो, उसे देर नहीं लगाकर जल्दीसे खर्च देना चाहिए। दूसरेके पैसे अपने पास हो, उनपर भी हमारा इख्तिार नहीं, है, जिस वक्त मालिक मांगनेको आवे उसी वक्त उसे वापिस दे देना न्याय्य है, तो फिर धर्मराजा तो कहां मांगनेको आता है, कि उस निमित्त खर्चनेके लिये विलम्ब किया जाय ? इस लिये धर्म संबंधी खर्च फौरन कर देना चाहिए, धर्मका पैसा जहरके समान है, धर्मका पैसा खानेसे लक्ष्मीका सत्तानाश होजाता है, और परलोकमें दुरन्त नरकका अतिथि ( मिहमान ) होना पडता है, कहा है"भक्खणे देवदव्वस्स परत्थीगमणेण वा । सत्तमं नरयं जंति सत्तवारा य गोयमा!" ॥१॥ अर्थ:
जीव, देवद्रव्यके खाने और परदार गमन करनेसे, सातवार सातवीं नरककी बडी भयानक वेदनाएँ पाता है।
किसी भी धर्म संबंधी टीपमें जितना देनेका लिखा हो, उतना दे ही देना चाहिये, भले पीछे टीप टूट ही क्यों न जाय, मगर धर्मका कानून तो यह है कि टीप टूटने पर भी लिखने अनुसार, निप बातकी टीप हो, उसमें खर्च करदेना चाहिए।
प्रर्वोक्त सात क्षेत्रोंमें, वर्तमान जमानेके अनुसार 'ज्ञान' क्षेत्रकी पुष्टि करनी अति जरूरकी समझते हैं। ज्ञानकी कमीसे ही जैन शासनकी कीमत कम हो गई। हीरेको, लोग काच समझने
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