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धर्मशिक्षा.
૧૩૨ धर्मको प्रतिक्षण सम्हालो, घरकी रंडीको सम्हालते हों, बच्चोंके गाल पर चुम्बन करते हों, स्वजन वर्गकी खबर लिया करते हों!, दिन रात रूपचंदनीकी फिक्रमें मरते हों, तो इस सब वैभवके जन्म देनेवाले-धर्मको भूल जाओगे क्या ? छी! छी ! छी:, कितनी कृतघ्नता ?, नहीं चाहिए कि धर्मसे निश्चित सुख भोगने हुएको धर्मकी ओर न निहालना ।
धर्मसे धनवान् बने हो, तो फिर धर्म करो ! कि ज्यादह वैभव प्राप्त होवे, लक्ष्मीपर लोभ समुद्रका बढाव अगर न रोकोगे, तो समझ लो ! कि मूलसे तुम्हारी सत्ता उखड जायगी, इस लिये परिग्रहका परिमाण करो ! लाख, दोलाख, दस लाख, पचास लाख, करोडका भी परिमाण-नियम करो । धर्म, आत्माकी शुद्ध परिणति पर है, धर्ममें कपट नहीं चलता, कोई दरिद्रकंगाल, मोह तृष्णाकी प्रबल प्रेरणासे करोड रूपयोंका नियम रक्खे, और धर्मकी तर्फ हाथ पसारे, धर्मकी टांग ऊँची रक्खे, तो ऐसी अशुद्ध परिणतिसे धर्मको फोसलाना नहीं होसकता, कपट करके धर्मका वशीकरण कभी न हुआ, न होगा, शुद्ध आम परिणतिही जब धर्मका मूल बीज है, तो वहां वणिक विद्याका बल कुछ भी नहीं चलता।
जितना परिमाण, द्रव्यका किया है, उससे ज्यादह द्रव्य बढ जाय, तो पूर्वोक्त सात क्षेत्रोंमें खर्च दो, सुपात्र दानमें दे दो, अभयदानमें दे दो!, अनुकम्पा दानमें दे दो!, मतलब कि अपने सांसारिक मतलवमें मत रक्खो। परिमाणसे अधिक द्रव्य बढा, तो फिर उसे धर्मकी राहपर खर्चनेकी देर नहीं लगानी चाहिए,
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