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________________ ૧૩૮ धर्मशिक्षा. जरूर देते रहें, कृपणता न करें। कुलटा लक्ष्मी, साथ नहीं आयगी। धनसे जो कुछ मतलब, धर्मका, या भोगका निकाला, वही निकल गया समझो ? बाकी मरने बाद क्या साथ आयगा?, समझो ध्यान दो ! मोहमें बावले मत बनो! किसके लिये-किस धास्ते इतना सिर पटकना ? कपाल फोडना ? । लोहीका पानी कर जो धन इकट्ठा करते हों ! वह धन तुम्हारा नहीं, उसके मालिक तुम नहीं, तुम्हारे लिये तो सिर्फ सेरभर आटकी रोटी ही काफी है, बाकीका माल, तुम्हारे पापसे पैदा हुआ भी तुम्हारे भोगमें नहीं आवेगा, आवेगा, गुलामोंके भोगमें, आवेगा तुम्हारे दुश्मनोंके भोगमें, आवेगा, जल आग वा राजेके भोगमें, आवेगा तकदीर सीधी होगी तो तुम्हारे संतानोंके भोगमें, मगर तुम तो मूंछ मरोडो ही मत !, तुम तो खुद अपने पर पापका बोझ उठाकर-पहिलेसे नरकके नायकोंको वहां जानेका संदेशा दे कर कूट, कपट, छल, प्रपंच, दगाबाजीसे भोले लोगोंका सिर काटकर पैसा इकठा दूसरेके लिये करते हों, और पापका फल तुम अकेले ही भोगोंगे, पापसे पैदा हुए द्रव्यमेंसे भाग लेनेवाले सम्बन्धिवर्ग, कुछ भी पापका फल लेनेको नहीं आवेंगे। समझो !, धर्म करो !, धर्म धनका संचय करो ! ताकि मरने बाद भव भव मुख सम्पदा मिलें । जो कुछ दान दिया, वही पैदायश हुई समझो!, धर्मके कानूनोंको खयालमें लो, धर्मकी सडकका भान करो! धर्म पर प्रेम करो, धर्मको हृदयका गहना-हार समझो !, दुःखी । अवस्था धर्मको मत भूलो!। संसार सागरमेंसे बाहर निकालनेवाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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