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धर्मशिक्षा
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पर करना शास्त्रकार भावान् फरमाते हैं-जिन बिम्ब १, जैन मंदिर ३, जैन आगम ३, साधु ४, साध्वी ५, श्रावक ६, और श्राविका ७ । इन सात क्षेत्रोंमें द्रव्यको सफल करता हुआ व्रतधारी दयालु गृहस्थ, महाश्रावक कहाता है । सम्पति राजा, सवा लाख मंदिरों, व सवा करोड जिन बिम्बों को प्रतिष्ठित कर बेहद्द पुण्य लक्ष्मीकी गठडी उठा ले गया । कुमारपालराजा, १४४४ जिनालय, बंधवाकर इस कदर कर्मोंको ढीला कर गया, कि आगामी चौवीसीमें प्रथम तीर्थकर पद्मनाभका गणधर होगा। एवं और भी वस्तुपाल तेजपाल, विमलशाह वगैरह महानुभावोंने चंचल लक्ष्मीसे अचल सुख पानेकी सडक हांसिल की।
साधुजनोंकी निष्कारण भक्ति करनेमें द्रव्य खर्चना, श्रावकोंका अब्बल धर्म है । मान लिया कि निर्ग्रन्थ मुनिजनोंको फूटी पाईकी भी जरूरत नहीं होती, मगर यह बात क्यों भूलनी चाहिए कि मुनि वर्ग, परमात्मा-धर्म सार्वभौमके चपरासी हैं, इस. लिये उन्हें, शासनकी रक्षाके लिये-शासनको उदयकी राहपर सं. चरानेके लिये श्रावकोंसे द्रव्य खर्चानेकी अति आवश्यकता है। शासनकी रक्षाका-शासनके अभ्युदयका काम अव्वल मुनिजनोंके सिर पर जब है, तो फिर इस काममें वे लोग प्रमाद नहीं कर सकते । दयालु-धर्मात्मा गृहस्थ वर्ग, फिर भी संसारी हैं, इसलिये शासनकी उन्नतिकी ओर उनकी नजर जितनी जाती होगी, उतनी ही जायगी, साधुवर्गकी तरह वे, धर्मध्वज, कैसे उठा सकते हैं ?, इसलिये साधुओंको, शासनकी अभ्युन्नतिके लिये जितनी सहायता-जितनी मदद चाहिए, उतनी, श्रावकोंका फर्ज है कि
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