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________________ धर्मशिक्षा. ૧૪૧ लगे। जना लोग, लइ उडानेमें जितना खर्च करते हैं, उतना खर्च ज्ञानकी तरक्कीके लिये करें, तो क्या बाकी रहे ?। जैनो ! खयाल करो!, जागो, समझो! अब वह वक्त नहीं रहा, कि नये नये मंदिर बंधवाये जाय, और साधर्मिक वात्सल्यमें नहीं नहीं मोतीचूरके जिमनमें खर्च किया जाय। जमाना पलटा है, बाप दादाओंकी बदौलत मंदिरोंकी कमी नहीं है, कमी ज्ञानकी है, कमी विवेककी है, इसीसे जैन जाति, दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली जा रही है, नजर करो! भाइयोंको सम्हालो !, गुरु महाराजको सुखशाता पूछनेके साथ ही भाइयोंको भी सुखशाता पूछो ?। भरती हो, वहां मत भरो! न हो वहां भरो !, कम हो; वहां भरो!, आवश्यक हो, वहां भरो!, विवेक रक्खो ! जातिके जन, बेचैन क्यों रहने चाहिएँ ?, उन्हें सुखी करनेमें मदद क्यों न देनी चाहिये ?। “ पेट भरा भंडार भरा" ऐसी मुर्खता मत रक्खो !, दो रोटी खाते हों, तो एक रोटी, आधी रोटी भी तु. म्हारे भाईको दो । भाइयोंको भूखे रखकर, भाइयोंकी दरिद्रतादुःखावस्थापर उपेक्षा कर, अकेले उदरम्भरि, कुशिम्भरि आमम्भरि होना अधमोंका काम है । व्यापारमें धर्मका भी कुछ हि. स्सा रक्खो, और जो कुछ धर्म संबन्धी द्रव्य पैदा हो, उसे, जातिकी कंगाल दशाके दर करनेके काममें खर्चा !। जातिकी दरिद्रता जबतक नहीं हटेगी, वहांतक सामाजिक-सामुदायिक बलकी आशा हर्गिज नहीं रक्खी जा सकती, और सामाजिक बलके अ. भावमें धर्मकी भी दुर्दशा होनी सुसंभवित है, इसलिये, “ जातिका दारिद्य कैसे दूर हो ? " इसपर अत्यंत ध्यान देनेकी जरूरत है। हरएक काममें ऐसी प्रवृत्ति करनी चाहिए, कि भाईयोंको भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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