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पाणिओं को लुकमा बनाता हुआ काळ-पिशाच कुछ भी ढीला न पडा । उसी प्रकार इस जीव को-अनादि काल से विषयानन्द भोगते हुए भी सन्तोषवृत्ति न मिली, अहा मोह ! बलिहारी है वेरी।
मोहरूपी मदिरा के नशेमें बावले बने हुए अधी-अविवेकी मनुष्य का जीवन-छाया रहित वृक्ष की भांति है । पानी रहित तालाब की तरह है । गन्धहीन पुष्प के समान है। बगैर दांत के हाथी के सदृश है । बिना लावण्य के रूप जैसा है। मन्त्री रहित राज्य सा है । देवतारहित देवालय के तुल्य है । चारित्रभ्रष्ट साधु के सहश है। चन्द्र शून्य रात्रि के समान है। हाथमें शस्त्र नहीं रक्खे हुए सैन्य की तरह है । और आंख बिना के मुँह के बराबर है।
चक्रवर्ती भी-धर्म का उपासक न हो तो ऐसा परलोक पाता है कि जहाँ निन्ध भोजन को भी दिव्य अमृत मानना होता है। बडे कुलमें उपजा हुआ श्रीमान् श्रेष्ठिरत्न भी धर्मको प्रसादी के नहीं पाने के कारण भवान्तरमें उच्छिष्ट भोजी कुत्ता होता है। बाह्मण वैश्य क्षत्रिय शुद्र कोई भी क्यों न हो, धर्म का तिरस्कार सब के लिये अनर्थ उपजानेवाला है। अधर्मी मनुष्यों को बिल्ली साँप शेर गिद्ध वगैरह दुर्गतियोंमें जाने की टिकट मिलती है । धर्महीन प्राणी विष्ठा वगैरहमें अनेकशः कीडे का जन्म पाते हैं,
और मुरगे वगैरह की चोंच व पांव के प्रहार का लाभ उठाते हैं। पापिष्ठ-दुरात्मा मनुष्यों का भवान्तर गति के समय नरक की
ओर प्रयाण होता है और परमाधार्मिकों के हाथोंसे बेशुमार दुःख उन्हें उठाना पड़ता है । पराधीन हो के प्राणी इतना कष्ट उठा लेते हैं, मगर स्वाधीन-स्वतन्त्र दशामें धर्मानुबन्धी (धर्म करने के प्रसंगमें) थोडा भी दुःख उठाना नहीं होता अफसोस ।
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