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शिक्षा-मुख.
संसारमें प्राणिओं को सुख देनेवाला एक धर्म है। अधर्मी आदमी का धर्म रहित जीवन किसी काम का नहीं । अधर्मी मनुष्य का मुदा जानवर तक को भी स्पृश्य नहीं होता, इसपर एक कविने कहा भी है" हस्तौ दानविवर्जितो श्रुतिपुटौ सारश्रुतेद्रोहिणी नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ । अन्यापार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुझं शिरो रैरे जम्बुक! मुश्च मुश्च सहसा निन्द्यस्य नीचं वपुः ।।
भावार्थ यह है कि किसी अधर्मी मनुष्य की लोथ का भक्षण करनेको उद्यत हुए गीदड को एक कवि समझा रहा है कि ऐ गीदड ! इस निन्दनीय-पापात्मा मनुष्यके शरीर को छोड दे ! इस का एक भी अंग-एक भी अवयव भक्षण करनेके योग्य नहीं है। अव्वल तो इसके हाय दान रहित हैं । कान उत्तम शास्त्रके श्रवणसे दूर रहे हुए हैं । आँखें सन्त-महन्तोंके दर्शन नहीं पायी हुई हैं। पाँव कभी तीर्थ स्थानों में नहीं गये हैं। पेट कूटकपटसे पैदा किये पैसेसे भरा है । और मस्तक अभिमान करके ऊंचा ही रहा है-ऋषि-महर्षिको नमस्कार करने का लाभ नहीं उठा सका। बस ! इस लिये यह लोय भी तुझे अस्पृश्य है।
अनादिकाल से नदियों का पानी संग्रहता हुआ महासागर तृप्त न हुआ। अनादिकाल से महासमुद्र का पानी पीता हुआ घडवानल शान्त न हुआ। बेशुमार लकडिओं के ढेर को भक्षण करती हुई आग आजतक संतुष्ट न हुई । और प्रतिक्षण असंख्य
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