________________
संसार में प्राणिओं को पोषण करनेवाली सची माता धर्म है। जीवों को रक्षण करनेवाला वास्तविक पिता धर्म है । मिजाज को खुश रखनेवाला असल मित्र धर्म है । और पवित्र स्नेहभाव से वर्त्तनेवाला एक बन्धु धर्म है । धर्म-सुख सम्पदा का अथाह भंडार है । धर्म रणयुद्ध में लोहे का बख्तर है । और धर्म बुरे कर्मों के ममेको भेदनेवाला प्रतीक्ष्णशस्त्र है। धर्म के प्रसाद से प्राणी राजा होता है, सम्राट होता है, देवता होता है, देवेन्द्र होता है, अहमिन्द्र होता है आखिरमें ईश्वर भी हो जाता है।
धर्म के अचिन्त्य प्रभाव को, सब दर्शनों में सभी मजहबों में सभी धर्माचार्य मुक्तकण्ठ से पुकार रहे हैं और धर्म का सामान्य स्वरूप“पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥१॥
(इस श्लोक में बताया हुआ) सभी महानुभावों को सम्मत है । वास्तवमें आत्म शुद्धि ही धर्म होनेपर भी उसके अहिंमादि सा. धनों को भी धर्म कहना कोई अनुचित नहीं है।
धर्म का सामान्य स्वरूप प्रायः सभी को विदित होगा। किन्तु यह मेरा प्रयास धर्म सम्बन्धी कुछ विशेष शिक्षा देने के लिये है, इसीसे इस पुस्तक का नाम भी "धर्मशिक्षा" रक्खा गया है। धर्म के विषयमें हजारों पुस्तकें विद्वानों के हाथ से लिखी गई हैं और नया तत्त्व-अपूर्व वात्तो कोई नहीं लिख सकता, तहां भी नये नये ढंग से उस उस समयपर लेखक लोग अपनी कलम चलाया ही करते हैं। किसी लेखक की किसी प्रकार की लेख पद्धति रहती है किसी की किसी चाल की । संक्षेप से विस्तार से ___*१ अहिंसा, २ सत्य ३ चोरी नहीं करना ४ ब्रह्मचर्य ५ संतोष ( त्यागवृत्ति) इन पंच नियमों को सभी धर्मचारियों ने पवित्र माना है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com