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मिश्ररूप से भिन्न भिन्न संकलना से विषय संयोग की विचित्रता से एक ही विषयपर हजारों लेखकों की हजारों तरह की जुदे जुदे ढंगवाली कलम चलती है । अनन्त वामय अनन्त शास्त्र ५२ ही वर्णोंपर पर्याप्त हैं तहां भी सब शास्त्र-सभी पुस्तकें परस्पर विलक्षण ही ढंगवाली हैं, कोई पुस्तक किसी पुस्तक से एकरूप नहीं होती । इस लिये. यह संकोच नहीं रखना चाहिए कि " पुस्तकों का ढेर पडा है, पहले जमानेके विद्वान् लोग बहुत ग्रन्थ लिख छोड गये हैं, नई पुस्तक से क्या प्रयोजन है ?" । किन्तु "शुभे यथाशक्ति यतनीयम् " ( शुभ काममें यथाशक्ति उद्यम करना चाहिए ) इस सुभाषित के अनुसार यथाबुद्धि-यथाकिलोकोपकारक योग्य लेखनी अवश्य चलानी चाहिए । ज्यों ।। स्मारक वस्तुएँ ज्यादह बढ़ेंगी त्यों त्यों जनसमाज को कर्तव्यों की ओर संस्कार दृढ होगा, स्मरण बार बार जागता
रहेगा।
धर्म सम्बन्धी शिक्षामें बहुत वक्तव्य भरे हैं । इतनी छोटी सी पुस्तक में सब वक्तव्यों का निवेदन नहीं आ सकता। इस पुस्तक में मेरे अल्प ज्ञानानुसार मैने अभी बिन्दुमात्र ही कहा है । खास खास विषय ऐसे बहुत से हैं कि जिनका स्पर्श भी यहां नहीं किया गया है और अवश्य विवेचन करने योग्य हैं । मैं पहले इस पुस्तक को बहुत ही छोटी रखना चाहता था मगर वक्तव्योंने ज्यों ज्यों मुझे घेर लिया त्यों त्यों लाचार हो के कुछ कुछ बढाता रहा, आखिर में प्रकाशक महाशय की प्रेरणा से यहांतक बढा के विराम लेना पड़ा।
इस पुस्तक में जितनी बातें बताई गई है उनका अनुक्रम आगे धरा है । इसी ग्रन्थमें से कुछ हिस्सा ले के " गृहस्थधर्म " पुस्तक का निर्माण हुआ है । ___“धर्मशिक्षा" का जन्म किशनगढ-राजपुताने में हुआ है ।
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