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विक्रम सं-१९६९ की सालमें जब मैं किशनगढ में चौमासा रहा था उस समय आगरा निवासी श्रीयान् श्रेष्टिवर्य महानुभाव लक्ष्मी चंदजी वेद के पुत्ररत्न श्रीयुत अमरचंदजी श्रीमान् मोहनलालजी तथा श्रीमान फुलचंदजी किशनगढ आये थे । उस वक्त श्रीमान फूलचंदजी ने मुझे अपना यह विचार दर्शाया कि " कोई धर्म विषयक अच्छी पुस्तक हिन्दी में लिखनी चाहिए कि जिससे इस प्रान्तवाले लोगों को लाभ मिल सके " । और पुस्तक लिखनेका साग्रह निवेदन किया। इन्हीं के निवेदन से इस पुस्तकका निर्माण हुआ है।
इस पुस्तक के लिखते वक्त न मेरे मनमें कोई द्वेषभाव की परिणति थी और न मैं ऐसी क्षुद्र वृत्ति रखना पसंद करता हूँ, तथापि राभस त्ति से मेरा औद्धत्य कहीं इसमें प्रतीत होता हो तो क्षमा करें।
" लेखक"
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