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________________ धर्मशिक्षा. षण्मासान् छागमांसेन पार्षतेनेह सप्त वै । अष्टावणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥२॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोर्मासेन मासानेकादशैव तु ॥३॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु। वार्धाणसस्य मांसेन तृप्ति दशवार्षिकी ॥४॥ __ अर्थ-खुद ब्रह्माने यज्ञके लिये पशुओंको बनाया है। यह यज्ञ जगतकी विभूतिको पैदा करनेवाला है । इस लिये यज्ञमें पशुवध, वध नहीं है। औषधी पशुवृक्ष तियञ्च और पक्षि, यझके लिये मरणमें पहुंचे हुवे उच्च गतिमे जाते हैं मधुपर्क, यज्ञ, और श्राद्धादि कर्मोमें पशुओंकी हिंसा करनी चाहिये । इन पूर्वोक्त प्रयो जनोंमें पशुवोंको हणता हुवा वेद पंडित ब्राह्मण, अपनी आत्मा और पशुओंको उत्तम गतिमें गमन कराता है । दो मास पर्यंत मच्छ मांससे पितृलोगोंको तृप्ति होती है। और तीनमास तक हरिणके मांससे, चार मासतक मेढोंके मांससे, पांच मासतक जंगली कुक्कटके मांससे, छ मासतक बकराके मांससे, सात मासतक सफेद हरिणके मांससे, आठ मास तक काले हरिणके मांससे, नव मास तक रूरू अर्थात् एक प्रकारके हरिणके मांससे, दश पास तक जंगली सुवर और भैसाके मांससे, ग्यारह मास तक सुस्सा तथा कछुवाके मांससे, बारह मास तक खीर और गायके दूधसे तृप्ति होती है, और बारह वर्ष तक बूढे बकराके मांससे पितृ लोगोंकी तृप्ति होती है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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