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________________ फिर मनुष्या, यज्ञानुष्ठान, पशुमान धर्म समझ लि धर्मशिक्षा. बहाना लेकर मांसभक्षणको उचित समझनेवाले जैमिनि मुनि का हृदय अवश्य वज्र कठिन होना चाहिये । जो मांस भक्षण, कुदरतसे मनुष्य जातिके भक्षण योग्य नहीं, तो फिर मनुष्योंके लिये मांस भक्षणकी नवीन कुदरत जैमिनिको कहांसे मिली, यज्ञानुष्ठान, पशुमारण विना क्या होही नहीं सकताथा, जिससे पशु मारणको जैमिनिने धर्म समझ लिया । हा! कैसा घोर पाप? क्या सनातन पवित्र धर्म, पशु मारणमें ही ठहरा है, याते पशु मारण रहित ही यागधर्मको ऋषिलोगोंने मंजूर न रक्खा। न जाने हिंसाको धर्म मानने वालोंने पशु रक्षाको क्यों धर्म समझा होगा ? और 'अहिंसा परमो धर्मः' इस वाक्यका सत्कार कैसे किया होगा! देखिये ! ऋषिके सुभाषितयज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंनुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः॥१॥ औषध्यःपशवो वृक्षास्तिर्यश्चः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रिति पुनः॥२॥ मधुपर्के च यज्ञेच पितृदेवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रैत्यब्रवीत् मनुः ॥३॥ एश्वर्थेषु पशून हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः। आत्मानं च पशृंश्चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥४॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु। और णाथ चतुरः शाकुनेनेह पंच तु ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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