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धर्मशिक्षा.
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वाचक ! ये श्लोक किसके हैं ? ये श्लोक उसी महर्षिके हैं, जिसकी तारीफ खुद वेदकारने भी की है, इसका नाम हैमनुजी।
वास्तवमें देखा जाय, तो वेदोंका बनानेवाला एक पुरुष नहीं है, किंतु बहुत ऋषियोंकी लिख छोडी हुई श्रुतियोंको, व्यासजीने संगृहीत–एकत्रित करके ऋग्-यजु-साम और अथर्ववेद, इन चार विभागोंमें विभक्त की; अब समझिये ! विचारक महाशय ! , कहां रही ईश्वरकी रचना ? । इन्साफभी ना कहता है कि निराकार ईश्वरसे शब्दरचना नहीं बन सकती । वही उपदेशक-वक्ता है, जो कि शरीर धारी है । ईश्वर जब शरीर रहित है, तो फिर ईश्वरके मुँहसे शब्द ध्वनिका निकलना कौन विद्वान् मान सकता है ? । अशरीरी ईश्वरको जब मुँह ही नहीं है, तो वह कैसे उपदेश दे सकता है ? , इससे यह साफ मालूम पडता है कि वेदोंका उपदेशक ईश्वर नहीं है, किंतु असर्वज्ञ - षि गण हैं।
जबतक घातक कर्मकी वर्गणाएँ आत्माके ऊपर लग रही हैं, तबतक वह पुरुष महर्षि-परमर्षि ही क्यों न हो ? , मगर असर्वज्ञही है। उसका स्वतंत्र उपदेश निःसंदेह प्रमाणरूपसे ग्रहण नहीं किया जा सकता । संसारमें रहे हुए पुरुषको तबही सवैज्ञता मिल सकती है, जब कि उसकी आत्मासे घातक कर्म सर्वथा नष्ट हो जाँय; मगर वैदिक विद्वानोंके हिसाबसे सर्वज्ञता पाना असंभवही मालूम पडता है, क्योंकि पहले तो कोई सच्चा सर्वज्ञका उपदेश ही नहीं है कि जिसके जरीयेसे कर्मोंको नष्ट करनेका उपाय मालूम हो सके, और तदनुसार प्रवृत्ति बन सके । कौन ऐ. सा देहधारी सर्वज्ञ, वैदिक पंडितोंने माना है कि जिसके उपदे
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