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________________ धर्माशक्षा. शसे, प्रजाको धर्मका वास्तविक भान हो ? । हमारी समझमें, वैदिकसृष्टिसे एक भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वेदान्ति लोग तो खुद ही शरीरधारीको सर्वज्ञ माननेसे नाराज हैं । और नैयायिकोंके अभिप्रायसे जब मुक्ति ही जडमयी है, तो संसारस्थ-पुरुषको सर्वज्ञता कैसे मिल सकती है ? यह सीधी बात है कि मुक्ति पाने पर भी अगर सर्वज्ञ स्वरूप आत्मा न हो, तो संसारमें रहे हुए पुरुषको तो सर्वज्ञता मिले ही कहांसे ? अगर च संसारमें सर्वज्ञताका उदय माना जाय, तो मजाल नहीं है कि फिर वह सर्वज्ञता मुक्ति मिलने पर आत्मासे भाग जाय । इसीसे (जडमय मुक्ति वादसे ) यह सबूत हुआ कि नैयायिकोंके विचा: रसे ससारस्थ पुरुष कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । बस ! आगया वैदिकोंके घरमें सर्वज्ञका भयंकर दुर्भिक्ष; बतलाईये ! अब कौन रहा सवैज्ञ-उपदेशक ? जो कि उपदेश द्वारा धर्मका प्रकाश कर सके, क्योंकि निराकार ईश्वरसे तो कुछ उपदेश आदि होही नहीं सकता, और असर्वज्ञ ऋषियों के उपदेश प्रामाणिक नहीं माने जा सकते । अब कहिये ! पाठक प्रवर ! वेद किसके बनाये ठहरे ? , वैदिक मतका सूत्रधार कौन रहा ? ; उक्त विचारके आंदोलनसे हमें यह जच गया है कि वेद, सर्वज्ञके किये हुए नहीं है - वैदिक मंत्रोका उपदेश, सर्वज्ञका किया हुआ नहीं है, और असर्वज्ञ ऋषियोंका वाक्य समूह रूप ही जब वेद सिद्ध हुआ, तो उसकी अप्रामाणिकता निवन्धन, औरभी वेदानुयायि शास्त्र, अप्रामाणिक कहे जाँय, यह स्वाभाविक है। वास्तवमें अगर कहने दो ! और दिल नाखुश न हो तो वहांतक हमारी धारणा है कि वेद असर्वज्ञ रचित हैं, इतना ही. नहीं, बल्कि वेदोंके रचयिता, एक हो या अनेक हों, दयालु हृदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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