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________________ ૧૧૬ धशिक्षा. जो आप चाहेंगे, वह, चाहनाके उत्तर काल भावी ही समझ लीजिए, इष्टवस्तुके सम्पादनमें इच्छा ही कारण होगी-इच्छा ही, इच्छाके विषयको प्रकट करनेमें कारण बनेगी, इतनाही क्यों? , इच्छाकी विषयतामें नहीं आया हुआ भी स्वर्गादि वैभव, ब्रह्म चारीके पास उपस्थित होजाता है, और मुक्ति देवी भी, ब्रह्मचारीकी तरफ प्रेम पूर्वक नजरोंको टकटकाती रहती है, वस! पूरा हुआ सकल गुणोंका आधार-ब्रह्मचर्य व्रत । curria पांचवाँ स्थूल परिग्रह विरमण व्रत. अर्थात् परिग्रहका परिमाण असंतोष, अविश्वास, और आरम्भ, इन तीनोंको दुखके देनेवाले, और मूछ से पैदा होनेवाले समझकर मूछोंके कारणभूत परिग्रहका परिमाण करना चाहिए । बेशक ! गृहस्थोंको धन विना नहीं चल सकता । सारे संसारका मुख्य स्तम्भ जैसे स्त्री है, वैसे द्रव्य-दौलतभी है। तौभी, लक्ष्मीदेवी हमारे आधीन नहीं होनेसे, दौलतकी एकदम गुलामी करना अच्छा नहीं । हमारी इच्छाके मुताबिक जव लक्ष्मी नहीं मिलती तो फिर आशातरंगोसे फिजूल क्यों बहना चाहिये । प्राणिओंकी आकाश जितनी चौडी आशाकी परिसमाप्ति होनी बहुत कठिन है । यह पक्की बात है कि जितना जितना लाभ बढेगा, उतना उतना लोभ अपना पद जरूर जमावेगा । ज्यों ज्यों दौलतकी पैदायश बढती जाती है, त्यों त्यों मनुष्योंका हृदय चक्र, तृष्णा कल्लोलोंसे ज्यादह घूमा करता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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