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धर्मशिक्षा.
૧૧૫ पूर्ण सहायता देती हैं। इन्द्रियाँ मजबूत तो कामदेव मजबूत, इन्द्रियाँ ढीली, तो कामदेव भी ढीला । अन्वय व्यतिरेक न्यायसे इन्द्रियों के अनुसार कामदेवकी गति है, इसलिये काम को दुश्मन समझने वालों को चाहिए कि पहले इन्द्रियाँ ही ढीली करदें, इन्द्रियोंसे, उच्छृखलता वृत्ति को छुडवादें, तबही आत्मतत्त्वका ज्ञान जाग उठेगा और धार्मिक प्रवृत्ति बन सकेगी । जो इन्द्रियाँ, आत्माको कुमार्गसे लेजाने के लिये, उन्मत्त घोडेका आचरण करती हैं, जो इन्द्रियाँ, कृत्याकृत्यका विवेक रुपी अभ्यंतर जीवनको नष्ट करनेमें काले सांपकी तरह आचरण करती हैं, जो इन्द्रियाँ, पुण्यपेडको उखाडनेमें प्रतीक्ष्ण कुठारकी चेष्टा करती हैं, वे इन्द्रियाँ, अगर न जीताई, तो पुरुषने क्या जीता ?, इसलिये पुरुषार्थ का अव्वल उपयोग, इन्द्रियों के जीतने में होना चाहिए । जो इन्द्रियां, प्रतिष्ठाको, निष्ठा (समाप्ति) में लेजाती हैं, जो इन्द्रियाँ, नय निष्ठाको कतल करदेती हैं, जो इन्द्रियां, अ. कृत्योंमें बुद्धिको स्थापन करती हैं, जो इन्द्रियाँ, विषय रसमें प्रेमको फैलाती हैं, जो इन्द्रियाँ, विवेकका खून पीनेमें कमर कस. ती रहती हैं, और जो इन्द्रियाँ, विपदाओंकी जननी होके बैठी हैं, उन्हें, वशमें लाके अनुभव रसका तात्विक आनन्द उठाना चाहिए । मौन करो!, घर छोडो!, क्रियाकांडका अभ्यास करो !, वनमें वास करो! , स्वाध्याय करो!, तप तपो, परंतु जहांतक श्रेय-कल्याणके पुंजके निकुंजको भंजन करनेमें महावायुके बराबर इन्द्रिय गणको न जीती, वहां तक सब अनुष्ठान, भस्ममें घी के होमनेके बराबर हैं, इसलिये उच्छृङ्खल इन्द्रियोंको वशकरनेमें जरूर प्रयत्न करना चाहिए, तबही धर्मकी सडक पायी जायगी, और ब्रह्मचर्य चिन्तामणि, हाथ आयगी । ब्रह्मचर्य चिन्तामणि हाथ आयी, फिर कहनाही क्या?,
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