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________________ धर्माशक्षा ૧૧૭ ज्ञानदृष्टिसे सोचनेपर यही स्फुरण होता है कि किसके लिये लोभान्ध होकर लक्ष्मीकी क्षुद्र गुलामी करना ?। जितनेसे अपना काम, चलजाता हो-पार पडजाता हो, उससे अधिक तृष्णामें क्यों फँसना चाहिये । बाहरकी दौलतसे, बाहरका मतलब सिद्ध होने परभी आत्माकी गरज न सरे, तो बाहरकी दोलत किस कामकी ?। दर अस्लमें अपनी आत्मिक गरज सरनेका उद्यम पहिले करना मुनासिब हैं, जब दौलतरूपी शराबका नशा, आत्मिक सम्पदा साधनेमें कट्टी शत्रुता रक्खा करता है, इसलिये सब दौलतका परिमाण करना चाहिये, नहीं तो दौलतरूपी शराबका मूर्छारूपी नशा, दुःखदायक-असंतोष, अविश्वास, और आरंभका जन्म दिये सिवाय नहीं रहता । क्यों कि जहाँ दौलत रुपी शराबके पान करनेकी मर्यादा नहीं रही, वहाँ मूछी रूपी नशेके वढनेका वेग क्यों कर रोका जायगा ?। और मूर्छा रूपी नशेके वेगसे आदमी जब बेचैन पडेंगा, तो फिर असंतोष, अविश्वास, और आरंभकी आपदाओं के जुल्मका पूछना ही क्या ?। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूीवान् आदमी धनसे तृप्त नहीं होता। और उत्तरोत्तर आशा-पिशाचीस पिटाता हुआ मनुष्य दुःख ही को पाता रहता है। यह जुल्म असंतोषका है, इस जुल्मको हटानेके लिये असंतोषकी माँ- मूर्छाकी नाक काटलेनी चाहिये-मूर्छा राक्षसी का संहार करना चाहिये । मूर्छाका शिकार करने पर असंतोषही क्यों ? पूर्वोक्त-अविश्वास और आरम्भ भी पतला पड जाता है । और मूछ की मजबूताई होने पर असंतोषकी तरह अविश्वास भी दुःखका खैरात करने लग जाता है । जहाँ मूछोंने अपना पाँव जमाया, वह मनुष्य, इतना तो शंकाशील रहता है कि नहीं शंका करनेके योग्य-सज्जन महाशयोंसे भी धन हरणकी शंका के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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