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________________ ૧૧૮ धर्मशिक्षा. मारे सब जगह चौंकता रहता अपने धनकी रक्षाके उपद्रव हीमें गटपट किया करता है । मूच्छावान् मनुष्य, सबपर शंकाशील रहता-किसीपर भी विश्वास न करता हुआ रातको निश्चल नींद लेनेको भी भाग्यशाली नहीं बन सकता, यह भला किसकी बदमाशी ?, मूर्छाके लडके अविश्वास ही की । इसीके प्रभावसे तो आदमी किसीका मित्र-प्रेमी नहीं बन सकता। अविश्वासी पुरुषके साथ, उसके स्वजन वर्ग भी, नाराज-नाखुश होके, उसे नादान-नालायक समझकर सम्बन्ध तोडदेते हैं । जैसे असंतोषी पुरुष, भरपेट सुखसे नहीं खाता, अच्छे-उमदे कपडे नहीं पहिनता, वैसे ही अविश्वासी आदमी भी पलंगपर निश्चित निद्राकी सुधा दृष्टिकी अपूर्व मजा नहीं ले सकता। वास्तवमें असंतोषी व अविश्वासी आदमीको धर्मकी प्राप्ति नहीं होती, कारण यह है कि देव व धर्मको प्रकाश करनेवाले गुरुदेव-गुरु महाराज ही पर अव्वल तो असंतोषी व अविश्वासी आदमीकी पूज्य बुद्धि नहीं रहती, वह तो यही मनमें शंकाता रहता है कि "कहीं मेरेसे गुरु महाराज पैसा न खर्चावें, अथवा मे. रेसे पैसा खर्चनेको न कहें ? " । सज्जनो ! जहां इस शंकाने अपना स्थान बनालियां, उस आदमी में, गुरु पर, पूज्य बुद्धि रही कहोगे ?, कभी नहीं; और गुरु पर पूज्य बुद्धि न रही, तो देव, व धर्मकी भी आराधना न बन आवे, इसमें कहना ही क्या ? । असंतोषी आदमी तो अपना भंडार ही भरना रातदिन चाहता रहता है, तो उस आदमीकी चमडी टूटने पर भी दमडी न टूटे, इसमें कोई ताज्जुब नहीं । अविश्वासी आदमी भी, स्त्रीके शरीरपर नपुंसककी तरह द्रव्यपर हाथ ही फिराता रहता है, रातदिन शंकाकी गरमीके मारे उसके दिलको तसल्ली नहीं मिल स. कती । ये दो ( असंतोष व अविश्वास ) मूछ के फल बता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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