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धर्मशिक्षा.
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दिये । अब तोसरा फल आरम्भ भी बड़ा कष्टदायक है। इसमें सन्देह ही क्या है कि मूर्छावाला मनुष्य, प्राणातिपात-जीवहत्या वगैरह ऐसे आरम्भोंमे फँस जाता है-जिनका विपाक परिणाम, बडा कडवा होता है । लडका बापको, बाप लडकेको, भाई भा
ईको, और भतीजा चचेको. द्रव्यकी मूर्छाके वेगमें आके ऐसी • हद्दपर ला छोडता है, कि दूसरे शत्रुसे भी यह काम न बन आवे । धनलोभी पुरुष, धनकी मूच्छोसे झूठी साक्षी देता हुआ महा मिथ्या वचन बोलता है। रास्ते मुसाफिरोंको लूटनेका काम करता है । धनवानोंके घरोंकी दीवारोंको तोडनेमें कमर कसता है। तथा अनेक प्रकारके ऐसे कष्ट कार्योंको उठाता है कि उससे चौथे भागका भी कष्ट अगर धर्मके लिये उठाया जाय तो मुक्ति स्त्रीका भी थोडा कुछ आकर्षण जरूर हो सके, इसमें क्या सन्देह, मगरबडीताज्जुबकी बात है कि धर्मकी तरफ लोगोंकी नजरें नहीं जाती, जब विषयों तरफ अनायास ही मनकी चपलता चला करती है । हम खूब समझते हैं कि संसारके सब विषय अनित्य, एवं बड़े दुःख देनेवाले हैं, फिर भी हमारा नालायक मन, उनकी तरफ दौडा करता है, यह कितनी कमजोरी ? । मनुष्योंकी चंचळ चित्तवृत्ति, लोभ समुद्र में तृष्णा कल्लोलोंसे चक्कर खाती हुई गोतोंसे भवरमें ऐसी डुबकी मारा करती है कि मानो ! त्रिलोकीका मालिक होनेको न चाहती हो ?, परन्तु यह बडी मूर्खता है कि फिजूल तृष्णा-आगसे जलते रहना । बेशक ! धनार्जनके लिये उद्यम करना चाहिये, मगर नीतिकी सडकसे-विशुद्ध हृदयसे उद्यम करना मुनासिब है, ता कि धन पैदा करनेका मुख्य मतलब भी पार पड जाय, और आत्मवृत्तिमें तामसिक-प्रकृतिके चक्रसे पुण्य रूपी पेड न कटे जायँ । यह स्पष्ट है कि परिग्रह (धन धान्य आदि) का बहुत भार उठाता हुआ प्राणी, नावकी तरह संसार-समुद्रमें डूब जाता हे।
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