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धर्मशिक्षा.
तथा च जैनेन्द्र आगम“महारंभयाए, महा परिग्गयाए, कुणिमाहारेणं, पंचिंदियवहेणंजीवा नरयाउयं अजंति"
इस आगमसे, नरककी आयुके उपार्जनके रास्ते बतलाते हुए भगवान् , महा आरम्भ और महा परिग्रहसे भी अधोगतिमें गिरना फरमाते हैं । तात्त्विक नजरसे विचार करने पर परिग्रहमें त्रप्त रेणु मात्र भी कोई गुण नहीं है । और दोष तो बडे बडे पहाड जितने प्रकट दिखाई देते हैं । अलबत्ते द्रव्यसे परमात्माका मन्दिर, प्रतिमा, ज्ञान-पुस्तके वगैरह बहुत धमके कार्य अच्छी तरह बन सकते हैं-परमात्माका मन्दिर, द्रव्यसे बनवाया जाता है, जीर्ण मन्दिरका पुनरुद्धार, द्रव्य से कराया जाता है, शास्त्रजी लिखवाना, छपवाना, तथा शास्त्रजीका चैत्य वनवाना यह भी द्रव्यसे होता है, पाठशाला, गुरुकुल, दानशाला, वगैरह भी पैसेसे बनते हैं, एवं साधु-साध्वोजीको अन्न, वस्त्र, पात्र, वगैरहका दान देना यह भी द्रव्यके ताल्लुक है, और इन कामोंसे पु. ण्यानुवन्धी पुण्य-महा पुण्यका जन्म होता है, और कर कोंकी निर्जरा होनेका भी सम्भव रहता है तो भी यह पक्की बात है। कि परिग्रहमें त्रस रेणुमात्र भी गुणका सम्भव नहीं है, और दोष पहाड जितने बड़े हैं।
बड़े अचम्भेकी बात है कि परिग्रहसे जिनालय-मूर्ति वगैरह पूर्वोक्त धार्मिक कार्योंकी पैदायशद्वारा पुण्य प्राप्ति बतलाते हुए भी पीछेसे जाके त्रसरेणुमात्र भी गुण, परिग्रहसे निकाल देते हो ?।
इसमें कोई अचम्भेकी बात नहीं, अचम्भा मात्र नहीं । समझनेका है। वस्तुदृष्टि यह है कि पूर्वोक्त धार्मिक कामोंका
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