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________________ १७४ विका ___ जो लोग पढकर पंडे हो गये, और व्रत-त्यागमें उद्यमशील नहीं होते, उनकी पंडिताई पर धूळ पडी। आचारका सहारा नहीं ली हुई पंडिताई किसी काम की नहीं है । इसलिये व्रत त्याग और क्रियामें उत्साही होना चाहिये । अभ्यास से शक्ति बढती है, और शक्ति के मुआफिक किये हुए तपमें दुनिका संभव नहीं होता, एवं मन वचन काया के योग हीन नहीं होते, और इन्द्रियाँ .. क्षीण नहीं होतीं। तपस्या की वृद्धि क्रम क्रमसे होती है। एकासन नीली आंबील उपचास इस क्रमसे हौले हौले धीरे धीरे तपस्या करनेका बल बढता है। खाना पीना किसे अच्छा नहीं लगता? मगर मोह उतार के तपस्या करनेवालों की ही बलिहारी है । तपस्या के बिना किसीके कर्म टूट नहीं सकते। तीर्थंकरों को भी बडी भारी तपस्या करनी पड़ी थी, तब जा के कर्मसमुद्र के पार पहुँचे । किले में पड़े हुए सैन्यको-रिपुदल को, अन्न न पहुँचाने से मरण के शरण होना पड़ता है, वैसे ही शरीर के भीतर गुंजते हुए आत्मिक-मोहादि रिपुदल भी, अन्न न पहुँचाने से (विशुद्ध तपस्या करने से) मरण के शरण हो जाते हैं, इसमें क्या सन्देह ? । पोसह वगैर के दिनों में तृष्णा को छोड संतोष पूर्वक अनेक वक्त भी हितमित आहार लिया जाय, तो यह भी एक प्रकारका तप ही है। ___ तपश्चर्या क्रोधादि कषायों को हटाकर क्रियापूर्वक करनी चाहिए । कषायवालों की तपश्चर्या फलवती नहीं होती-जितना उचित फल है, उतना नहीं. मिल सकता । यों तो तपस्या मात्र, कुछ न कुछ फल दिये सिवाय नहीं रहती, भूखे मरनेवालोंकोअज्ञानकायक्लेश उठानेवालों को परलोकमें कुछ न कुछ अवश्य ही फल मिलता है इसमें कोई सन्देह नहीं, मगर उचित फलकी प्राप्ति विशुद्ध तप से होती है। क्रिया बिना सिर्फ भूखा मरना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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