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________________ ૧૭૬ शिक्षा. अच्छा नहीं । जिसे परमात्मा की वचन शैलीपर श्रद्धा होगी, वह क्रियाका उत्थापन हर्गिज नहीं कर सकता। "शान क्रियाभ्यां मोक्ष:""सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" इत्यादि आगम वचनों से ज्ञान के साथ क्रिया की भी परमाकश्यकता मोक्षके लिये मानी गई है। आन्तरिक-भावना, अनुप्रेक्षा, प्रणिधान, स्मरण, वगैरह क्रियाओंमें मग्न रहनेवाला महात्मा, षडावश्यकादि बाह्य क्रियाओं में भी बराबर मशगूल रहता है। बाह्य क्रियाएँ केवल कायक्लेश नहीं हैं, किंतु आन्तरिक क्रियाओं करके गुंफित हैं । धर्ममें सुस्ती करनेका काम नहीं है । सुस्ती होगी तो धर्म साधन न होगा । पुरुपार्थ स्फोरायमान करके शरीर को आन्तरिकक्रियासंयुक्त बाह्यक्रियासे इस कदर जोड देना चाहिए कि अभ्यन्तर दुश्मन ढीले पड जायँ, और आत्मिक अनुभव ज्योति प्रगटे, बस! इसीलिये यह पोसह व्रत गृहस्थोंके धर्म कानूनों में भगवान्ने रक्खा है। पूरा हुआ ग्यारहवां पोसह व्रत ॥ बारहवाँ अतिथि संविभाग व्रत. अतिथि अर्थात् मुनिजनोंको आहार पात्र वस्त्र और वसति ( रहनेका स्थान ) वगैरह देना, उसका नाम है-अति. थि संविभाग व्रत । इससे यह स्पष्ट मालूम पड सकता है कि पैसे रूपये सोना वगैरहका दान मुनिजनों को नहीं कल्पता । संसारकी उपाधियाँ-धन माल मिल्कत दुलहिन वगैरह छोडकर साधु बने, तो सोचो ! उन्हें पैसा कैसे काममें आ सकता है ? द्रव्य साधुधर्मका जब कट्टा दुश्मन है तो साधु उसे किसी हालतमे नहीं ले सकते । जो लेते हैं, वे साफ साधुपदसे बाहर हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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