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________________ पशिला और जो उन्हें देते हैं, वे साधुधर्म का खून पीनेवाले हैं इसमें कोई सन्देह नहीं । साधु लोग भिक्षासे अपना उदर पोषण करते हैं, भिक्षासे कपडे मांगकर पहिनते हैं, किन्तु धर्मकी सेवा के लिये-धर्मका उदय बढाने के लिये, शासनकी तरकी के वास्ते, साहित्य और मंदिरो ( देवालयों ) का पुनरुद्धार के लिये, समाजमें विद्याका फैलाव करनेके लिये और जातिका सुधार करनेके लिये लाखों रूपये खर्चनेका उपदेश देते हैं। मुनिराजों के पवित्र उपदेश से गृहस्थ लोग लाखों रूपये खर्चते है, मगर अपने वास्ते एक पाईका भी खर्च साधु लोग नहीं करवा सकते, बात भी सच्ची है कि खानेका भोजन पहिननेके कपडे रहनेकी जगह वगैरह जब मिले ही रहते हैं तो फिर किस वास्ते-किस मतलब के लिये साधुओंको पाई की भी दरकार रहे ? और ऐसी निःस्पृहता जब तक प्राप्त न हो, तबतक साधुकी हद्द पाना नहीं हो सकता, इसलिये निःस्पृही ही साधु कहे जा सकते हैं, और साधु निस्पृही ही होते हैं, सब ही तो उनसे लाखों रूपयोका परोपकारी काम हो जाता है। देखिए ! अतिथि संविभाग के लिये जैनागम“नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाणं दव्वागं देसकालसबासकारक्कमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुधाए संजयाणं दाणं अतिहि संविभागो"। अर्थ: न्याय (नीति ) से प्राप्त, कल्पने के जोग्य, अन्नपानी वगैरह का देश काल के अनुसार श्रद्धा से सन्मान से परम भक्ति से आत्मकल्याण की बुद्धि से संयमी (मुनि) जनों को देना यह अ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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