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तिथि संविभाग व्रत है। धन्य है वे लोग, जो शुद्ध आहार पानीसे वक्तपर घरको पधारे हुए साधु महाराजोंका बडे दिलसे सन्मान करते हैं । जो चीज अपने दिलको वल्लभ है-परम इष्ट है, वह साधुओंके आगे हाथमें ले के खडा रहना चाहिए, और भूरि भूरि प्रार्थना करनी चाहिए कि " साहब ! यह ले के मुझे कृतार्थ करो !"।
किन्हीं महानुभावों का कहना होता है कि "बेशक ! भोजनका दान तो जरूर मुनियों को देना चाहिए, मगर कपडा नहीं देना चाहिए, क्योंकि साधु लोग नग्न होते हैं, इसलिये उन्हें कपडा नहीं कल्पता, अगर कपडा रक्खें तो परिग्रहका प्रसंग हो जाय तो साधुपन नहीं रहे" । मगर तत्वहटिसे विचारने पर कपडे पहिननेसे. परिग्रही नहीं हो सकते । जैसे भोजन लेना शरीर की रक्षा के लिये मंजूर है, वैसे ही कपडे का भी प्रयोजन शरीर रक्षा ही है, तो फिर भोजन की तरह कपडे लेने में क्या दोष है ? अगर कहा जाय कि वस्त्र मोह-तृष्णाका कारण है, तो भला ! आहार मोह-तृष्णाका कारण क्यों न होगा ? । जिस प्रकार आहार को मोह-तृष्णा का जन्मदाता नहीं मानते हों, उसी प्रकार वस्त्र को भी मोह-तृष्णा का कारण नहीं है-ऐसा मान लीजिए ! । कपडा अगर परिग्रह है तो शरीर भी खुद परिग्रह होगा, तो कपडे की तरह उसे भी क्यों रखना चाहिए ?; और भोजन भी परिग्रह होगा, उसे भी क्यों मांगना चाहिए ।
वस्तुगत्या मूच्छी ही को परिग्रह भगवान्ने माना है। वाचक मुख्य भगवान् उमास्वांत महाराज भी
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