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पशिक्षा “मूर्छा परिग्रहः” इस सूत्रसे तथा" शीतवातातपैदशेमशकैश्चापि खेदितः ।। मा सम्यक्तवादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति॥१॥
इत्यादि श्लोकों से मूर्छा ही को परिग्रह कहते हुए कपडे रखनका निषेध नहीं करते हैं । बल्कि संयम रक्षार्थ एवं उपद्रव निवारणार्थ वस्त्रपात्रादि की अनुमति देते हैं । ज्ञानार्णवमें शभचन्द्रजी तथा तत्त्वानशासनमें अमतचन्प्रसार वगैरह दिगम्बर सूरि भी वस्त्र रखने का प्रगट उद्देख कर गये हैं, बात भी सच्ची है, क्योंकि वह चौथे आरे का वक्त अब नहीं रहा, वह संहनन वह मनोबल वह धैर्य वह स्थिरता अब नहीं रहो, इसीसे तो वर्तमान कलिजुगमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं रही, अतएव यह बात सुसंभावित है कि मोक्ष रूपी फल नहीं रहनेसे उसको प्राप्त करानेवाली सामग्री-अविकल कारण भी वर्तमानमें नहीं है। संपूर्ण सामग्री रहते कार्यका उदय अवश्य होता है, और वर्तमानमें मोक्षरूपी कार्य (फल) नहीं है, इसलिये मोक्षसाधक पूर्ण साधन भी वर्तमानमें नहीं है, यह न्यायप्राप्त बात न्यायपक्षपातियोंको जरूर माननी पडेगी बस ! मोक्षसाधक पूर्ण साधन नहीं रहनेसे चारित्र की पराकाष्ठा पर आरोहण होना असम्भव है, जितना संभव है उससे नीचे गिरनेवाले, पासत्ये कुशीलक कहे जाते हैं, इससे विचारक गण समझ सकते हैं कि वस्त्रादि रहित होनेका कठिन कष्ट नहीं उठानेवाले-कलियुगके महाव्रतधारी महात्मा साधुजन, समयानुसार बराबर साधु हैं । स्थविरकल्पी और जिनकल्पी ये वास्तवमें तो. दो रास्ते ही न्यारे हैं, जिनमेंसे वर्तमान कालमें सिर्फ स्थविर क. ल्प की मर्यादा रही है और जिनकल्पी आचार उच्छिन्न हुए, जो
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