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________________ वर्मशिक्षा, ૧૭૬ पहले जमानेमें सेवाते थे, और सेवनेवालों को तद्भवमें हर्गिज मोक्ष नहीं मिलता था । नंगे हो कर व्यवहारमें रहना यह कितना बीभत्स?। वर्त मान जमानेमें तो नंगे हो कर नगरमें चलनेवालों को शिक्षादाता चपरासी बैठे ही हैं । परमात्मा तीर्थंकर देव तो अतिशय के प्रभाव से नग्न हुए भी नग्न रूपसे नहीं दिखाते थे, वैसा अतिशय वर्तमानमें हो तो कौन नग्न होने को तैयार नहीं हैं ? । गिरिकन्दरा वननिकुंज में रह कर जो कुछ खाके जीवन चलाने के साथ आत्मसाधन करना हो, तो नग्र होनेकी कौन मनाही करता है? परंतु बतलाईए ! ऐसे वनवासी तपस्वी दिगम्बर मुनि कितने हुए; ऐसी हि कठिन वृत्तिसे तो भला! कोई दिगम्बर मुनि नहीं होता, और जो होते हैं, वे फिर दुर्दशा से लपेटाते हैं, अतएव दिगम्बर समाजमें साधुओं का दुर्भिक्ष दिखाता है, बात भी सची है कि पूर्व ऋषि-हाथीओंका अनुकरण वर्चमान कलियुग के टट्ट कैसे कर सकते हैं ! । अगर करने लगे तो मूलसे पतित हो जायँ, यह स्वाभाविक है, इसलिये समयानुसार नियमित उचित हद्दपर कयाम करना मेरी समझमें अच्छा मालूम पडता है । राजे की हवेली को देख अपनी कोठरी गिराना अच्छा नहीं । फर्ज करो कि वनवासी तपस्वी मुनि हो भी जायँ, मगर उनका व्यवहारमें प्रचार नहीं होनेसे-ग्राम नगरादिमें संचार नहीं होनेसे तीर्थप्रवृत्ति तीर्थप्रभावना तीर्थरक्षा वगैरह कैसे बन सकेंगे? । पहले जमानेमें तो नम भी-अनग्न भगवान्की देशना त्रिलोकी को फायदामंद होती थी। अलावा तीर्थकरोके स्थविर कल्पी भी मुनिगण बहुत थे,जिनकी तर्फसे तीर्थका प्रबल अभ्युदय होता रहता था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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