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धर्मशिक्षा.
मगर वर्तमानमें (कलियुगमें) जिन कल्प की झंडी फरकाना सरासर जैन शासनको नीचे गिरानेका काम है । स्थविर कल्पी मुनि न होते तो वर्तमानमें जैन समाजमें बिनगुरुका कलंक नहीं हटता ।
यह तत्त्व जितना स्फुट है, उतना ही बहुत वक्तव्यों से भरा है, मगर लेख गौरव न हो. इसलिये इस विषय को संकोचता हुआ आखिरमें इतना ही कह देना समुचित समझता हूँ कि मध्यस्थ दिलसे इस बातका पुख्ता विचार करो, इसमें हमारा कोई दुरभिनिवेश नहीं है।
__ मूल सूत्रोंमें वस्त्रादिका रखना साफ बताया है, देखिए ! भगवती का पाठ. "समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाईम साइमेणं वत्थ पडग्गह कंबल पायपुंछणेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलामे माणे विहरई"।
इस पाठ से वस्त्र कम्बल वगैरह का रखना साफ प्रकाशित होता है । सूत्र ही अगर माननीय न हों, तो क्या कहें ?।
धर्मात्मा-महात्माओंको अन्न वस्त्र वगैरहका दान देना, न कि सोने रूपयेका । साधर्मिक-सज्जन गृहस्थों को धनसे सहायता देना पुण्य कर्म है, मगर फकीर-साधुओं को फूटी पाईका भी दान नहीं देना, यह दान क्या है, अधर्म ही है । जिसके देनेसे क्रोध लोभ व कामका उद्रेक होता है, वह द्रव्य फकीरों को काबिल दान देने के नहीं है । जिसका विदारण होने पर जन्तुओं के देर मरण के शरण हो जाते हैं, वह पृथ्वी भी दान देने के योग्य
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