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धर्मशिक्षा.
दका अनुचर बन, चिरस्थायी, प्रासाद-रमणी-बगीचेमें एशआराम उडाना, यह कभी स्वप्नमें भी सम्भावना नहीं हो सकती ?, ऐसी सम्भावना, स्वप्नमें क्या, जागृत अवस्थामें अगर हो भी जाय, तो भी उसको फलवती होना, आकाशके फलवान् होने के बराबर है, इस लिये मृषावादका संग कदापि करना नहीं चाहिये।
यहाँ यह शङ्का उपस्थित हो सकती है, कि मृषावाद विरमण वगैरह सभी व्रते, अहिंसा-दयारूपी बागके रक्षण करनेका किला होनेसे, मृषावाद विरमण व्रत अर्थात् सत्य वचन भी, 'मृग किस तरफ चले गये ? ऐसे शिकारी लोगोंके पूछने पर वहाँ खडा रहा जानकार आदमी, अगर नहीं बोलेगा, और 'मैं नहीं जानता हूं' इत्यादि कुछ मृषा बोल देगा, तो वेशक ! उसकी तरफसे मृगोंकी हिंसा बच जायगी, मगर सत्यवतके भङ्गका दोष, वैसेका वैसा ही उसको शिरपर उठाना पडेगा, अगर चे, वह, सत्य व्रतके प्रतिपालनका मन पका रखेगा, तो वह खुद जीवहिंसाका प्रयोजक बननेसे हिंसा पापसे पातकी ठहरेगा, यह तो और भी ज्यादह नुकशान, तो ऐसे प्रसङ्गपर किस प्रकार वर्तना चाहिये, जिससे कि हिंसाका प्रयोजक न बननेके साथ सत्यवादिपन रक्षित रहे?।
ऐसे प्रसङ्गपर अगर विवेक पूर्वक मौन करनेसे काम सरजाय, तो अच्छा है, नहीं तो जानते हुए भी पुरुषको उस वक्त साफ उलटा बोल देना चाहिये कि "मुझे नहीं मालूम" । ऐसा कहनेसे मृषावादका पाप नहीं लग सकता, क्यों कि मृषावाद विरमण, यानी सत्यव्रतमें सत्य शब्दका यह तात्पर्य है कि सद अर्थात् भूतों (जीवों)को हितकारी-हित करनेवाला, अर्थात् जीवको क्लेश होनेका कारणभून नहीं, ऐसा जो वचन है, वही सत्य है, इस लिये उक्त प्रसङ्गपर, जो उलटा बोलना है, वह, सत्य श
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